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________________ तत्वार्थ सूत्रका महत्व [१३५ और करनेकी प्रेरणाको ही करुणा कहते हैं। अगर हृदयमें त्याग धर्म हमारे पास्माको पवित्र बनाता है। वह हमारी देने और करनेकी वास्तविक प्रेरणव न हो तब तो दया जीवन शुद्धिका कारण है। जो जितना त्यानी है वह उतना अथवा करुणाका पाखण्ड हो सामये । ही महान और बन्दनीय है। महासंग्रहशील चक्रवर्ती त्याग धर्म अथवा कोई भी धर्म केवल व्याख्याकी सम्राट महास्यामी तीर्थकरकी चरणरजको पाकर अपने वस्तु नहीं है. हमें स्वतः सिद्ध तत्वको उतना समझाने की मापको धन्य समझता है। सचमुच जीवनकी सफलता जरूरत नहीं है जितनी जीवन में उतारनकी है। सचमुच त्यागसे ही है। । महत्व (पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य) महत्व और उसका कारण सही उत्तर यही है कि इस सूत्र ग्रन्थके अन्दर समूची इसमें संदह नहीं, कि तत्वार्थ मूत्रके महत्वको श्वेताम्बर जैनसंस्कृतिका अत्यन्त कुशलताके साथ समावेश कर और दिगम्बर दोनों मम्प्रदायोंने समानरूपसे स्वीकार दिया गया है। किया है, यही सबर है कि दाना सम्प्रदायांक विद्वान संस्कृति-निर्माणका उद्देश्य प्राचार्योंने इस पर टीकायें लिखकर अपनको सांभाग्यशानो संस्कृति निर्माणका उद्देश्य लोक-जीवनको सुखी माना है। सर्वसाधारणके मन पर भ तत्वार्थसूत्रके बनाना तो सभी संस्कृति निर्माताओंने माना है। कारण कि महत्वकी अमिट छाप जमी हुई है। उद्देश्यके विना किसी भी संस्कृतिके निर्माबका कुछ भी दशा-याये परिच्छिन्ने तत्व थें पठित सति । महत्व नहीं रह जाता है परन्तु बहुत सी संस्कृतियाँ इससे फलं स्यादपचासम्य भापितं मुनिपुङ्गवः॥ . भी भाये अपना कुछ उद्देश्य रखती हैं और उनका वह इस पद्यने सर्वसाधारणको हमें इसका महत्व बढ़ाने- उद्देश्य प्रारमकल्याणका बाभ माना गया है। जैसंस्कृति में मदद दी है। यही कारण ६ कि कमसे कम दिगम्बर एसो सस्कृतियाम से एक है । तापर्य यह है कि जन समाजको अपड महिलायें भी दूसरोके द्वारा सूत्र पाठ सुन संस्कृतिका निर्माण जोकजीवनको सुखो बनाने के साथ-साथ कर अपनेको धन्य समझने लगती है। दिगम्बर ममा नमें आत्मकल्याणकी प्राप्ति (मुक्ति) का ध्यान में रखकरके ही यह प्रथा प्रर्चालन है कि पप्पणपर्वके दिनों में तत्वार्थ- किया जाता। सूत्रको ग्वामतोम्स मामूहिक पूजा की जाती है और स्त्री संस्कृतियोंके आध्यात्मिक और भौतिक एवं पुरुष दोनों वर्ग बड़ी भक्तिपूर्वक इसका पाठ किया या सुना करते हैं। नित्यपूजाम भी तत्वार्थसूत्रके नामस पूजा पहलुकि प्रकार करने वाले लोग प्रति दिन अर्घ चढ़ाया करते है और विश्वकी सभी संस्कृतियोंको थाध्यास्मिक संस्कृतियाँ वर्तमानमें जब दिगम्बर समाजमें विद्वान दृष्टिगोचर होने माननमें किसीकी भी विवाद नहीं होना चाहिए, क्योंकि बगे, तबसे पपणपर्वमें इसके अर्थका प्रवचन भी होने प्राविर प्रत्येक संस्कृतिका उद्देश्य लोकजीवन में सुखम्यलगा है। अर्थप्रवचनके लिए तो विविध स्थानोंकी दि. जैन वस्थापन तो है ही. भले ही कोई संस्कृति मारमतत्वको जनता पषण पर्वमे बाहर भी विद्वानोंका वुलानका स्वीकार करती हो या नहीं करनी हो । जैसे चार्वाककी प्रबन्ध किया करती है। तत्वार्थसूत्रकी महत्ताक कारण ही संस्कृतिम बाग्मतम्बको नहीं स्वीकार किया गया है फिर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो सम्प्रदायाँके बीच कर्ता-विष- भी बाकजीवनका सुग्बी बनाने के लिए 'महाजनो येन गतः यक मतभेद पैदा हुया जान पड़ता है। स पन्था" हम वाक्यके द्वारा उपने लोकके लिये सुखकी यहाँ पर प्रश्न यह पैदा होता है कि तत्वार्थसूत्रका साधनाभूत एक जीवन व्यवस्थाका निर्देश तो किया ही इतना महत्व क्यों है? मेरे विचारसे इसका सीधा एवं है। सुखका व्यवस्थापन और दुःखका विमोचन ही
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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