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किरण २)
कोंका रासायनिक सम्मिश्रण
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पर नियन्त्रण रखनेकी जरूरत है। यह नियन्त्रण बतों फल या सज्जन्य कर्म भी शुभ्र होते हैं। ध्यानका जैसा द्वारा या आचार-व्यवहारकी शुद्धि एवं परिमार्जनद्वारा विषय होगा वैसा ही बंध भी होगा। भात्मा परम शुद्ध, संभव हो सकता है । तीन बन्धको उत्पन्न करने वाले निर्मल, ज्ञानमय है इसलिए प्रास्माका अपने ही भीतर मिथ्यास्व अधिरति,प्रमाद, कषायादिको हम जितना अधि- ध्यान करनेसे बाहरी दम्या, वस्तुओं और पुनलोंका संबन्ध काधिक दूर या कम या कमजोर करते जायगे बन्ध-योग्य एकदम छूट जाता है और तब बन्ध होता ही नहीं. संवरके मन्तिरिक कम्पन-प्रकम्पन उतने ही कमजोर हंगे और साथ निर्जरा पूर्ण होती है। प्रात्मामें ध्यान लगाने पर तब बन्धकी स्थिति अनुभाग आदिमें कमी पड़ेगी और इसीलिए सबसे अधिक जोर हर दर्शनशास्त्र और उपदेशप्रकृति शुभ्र होती जायगी। बन्धका मुख्य कारण अन्त में दिया गया है । शारीरिक द्रव्यकर्मोको एकदम कमसे प्रदेशका कम्पन-प्रकम्पन ही है । ये कम्पन प्रकम्पन कम करके भावको सर्वथा प्रारमाने युक्त कर देना ही तप जितने कम हो सकें जिस तरह कम हो सकें वही करना है, जिससे निर्जरा अधिकसे अधिक होती है। जब पुद्गल"संवर" करने वाला कहा जायगा या होगा। कम्पन नहीं कर्म पुंज अपनो प्रकृति स्थिति मादिके अनुसार कर्म करा होनेसे सुसंगठित, सुदरूपसे स्थित अथवा पर्त पर पर्त- कर बिखर जाते या मर जाते हैं तब उस क्रियाको हम की तहकी तरह जमे हुए पुदगल कर्मपुजामें हलचल और सकाम निर्जरा कहते हैं। पर जब प्रास्मामें ध्यान लगाए उद्वेलन नहीं होंगे और तब उनमें बाहरसे आनेवाली रखनेके कारण नए प्रास्त्रवोंका संवर हो जाता है और पुद्गल वर्गणाएँ नही प्रवेश कर सकेंगी-या कम्पनी पुराने कपुज वर्गर फल दिये ही बिखर या झड़ जाते हैं कम-बेशी तीव्रताके अनुसार कमबेश प्रवेश करेगी और तो उस क्रियाको 'अकामनिर्जरा' कहते है। सम्मिश्रण (Compouncong) भी कमबेश होगा, अान्मध्यान या शुक्लध्यान-द्वारा प्रायः मंबर और इत्यादि । इसीलिये संयम, बत, ममिति, गुप्ति, ब्रह्मचर्य निर्जरा ही होते हों। गृहस्थ तो गार्हस्थ्य कर्ममें लीन प्राणायामादिका विधान किया गया है। इनका विशेष विव- होनेके कारण प्रायः कषायादि कमों में लगा ही रहता है रण यहाँ देना संभव नहीं एकबार यह समझ लेनेके बाद इसलिए उसे देवदर्शन, तीर्थंकरकी शान्तमई ध्यानमुद्राकि कर्म किस प्रकार पुद्गलवर्गणाओं या पुदगलरचित से युक्त मूर्तिका दर्शन ध्यानादि करनेकी व्यवस्था रखी संगठनों द्वारा मंपादित या प्रेरित होते हैं तथा उनका रामा- गई है। शास्त्र-पठन-पाठनस जानकारी बढ़ती है और यनिक सम्मिश्रण किम तरह होकर उनमें परिवर्तनादि होने ज्ञान ताजा होता रहता है-शुद्ध चेष्टाएँ बढ़ती है। हैं उसी सिद्धान्तको इन बाकी बातों में भी युक्त करके गृहस्थ भी प्रात्मध्यान थोड़ा बहुत कर सकता है और उनकी क्रियाओं, प्रकृतियों और प्रभावको समझने में कोई जब भी जितना भी वह पारमा ध्यान लगा सकेगा उतना दिक्कत नहीं रह जायगी।
उसके कर्मोंका भी संवर और निर्जरा होगी, उसके कर्म सबसे अधिक संवर तब होता है जब ध्यानकी एका- शुभ्र या शुल्क होंगे और साथ ही साथ उसकी मानसिक ग्रता होती है। ऐसे ही समय निर्जरा भी अधिक होती। योग्यता और कार्यक्षमता भी बढ़ेगी। सारा जैनशास्त्र ध्यानकी एकाग्रता किसी एक विषयमें होनेसे केवल एक इन विषयोंके विशद वर्णनसे भरा हुमा है। संयम, नियम, प्रकारके ही कम्पन होंगे अन्यथा एक प्रकारके कर्मपुद्गल- प्राणायाम, व्रत, उपवास इत्यादि सब इसीलिए हैं कि पुजमें ही उद्वेलन पैदा होगा और फिर उसी अनुरूप एक मानव शुद्धताकी एक श्रेयीसे चढ़कर अधिक शुद्धताकी प्रकारका ही बंध होगा बाकी कर्मास्रवोंका संवर, और दूसरी श्रेणीसे तीसरी में और फिर अपने पारमशुद्धि उदय पाए हुप दूसरे कर्मपुओंकी निर्जरा हो जायगी। यदि करता हुआ एक समय कोसे-पुनलके संयोग या संबन्ध. ध्यानका विषय कषाय है तो कषायोंमे पुनः तीवबंध से-एकदम छुटकारा पाकर मोष पा जाय-अपना स्वरूप, भी होगा। शारीरिक वाचनिक और मानसिक हलन-चलन शुद्ध परमज्ञानमय रूप प्राप्त करले और उसीमें लीन (द्रव्य और भावकर्म) भी उस समय सबसे कम होते हैं हो जाय-तभी उसे सर्वदाके लिए दुखॉमे छुटकारा मिल जब मानव किसी एकान ध्यानमें लीन स्थिर-स्थित हो। कर शाश्वन परमानन्दकी प्राप्ति हो जाती है। शुभ्र ध्यान करनेसे शुभ्र बंध होते है जिनका परिपाक- शुभ्र या अच्छे कर्म या कर्मबन्ध के होते हैं जिनसे मानत्र