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भनेकान्त
[किरण २
इन पुद्गल रचित कर्माण वर्गणाओं में भी प्रापसो क्रिया- जिस तरह इलेक्ट्रन और प्रीटम (पुद्गल परमाणुप्रक्रिया द्वारा परिवर्तन होकर एक प्रकारकी प्रेरक वर्गणाएँ स्निग्ध और (रुक्ष) ये ही दोनों कमवेश संख्याभोंमें मिलदूसरे प्रकारकी प्रेरक वर्गणानामें अपने आप बदल जाती कर विभिन्न धातुओं और वस्तुओंको विभिन्न स्वभाव और है। इन पौद्गनिक वर्गणाओं या कर्मवर्गमाओंका गुणों वाले बनाते हैं ठीक उसी तरह कर्मवर्गणा नामके पुदमिलन सम्मिश्रण द्वारा एक सुदृढ़ संगठन बना लेना और गलपुजोंमें भी विभिन्न प्रकृति, स्थिति भादि करनेवाली पुनः समय पाने पर विखर जाना और फिर विखरे हुए वर्गणाांकी बनावट विभिन्न होती है पर उनको बनाने वाले परमाणुषों अणुओं और वर्गणामोंका दूसरे परमाणुओं, पुद्गल परमाणु तो वे ही दो प्रकारक स्निग्ध और रुक्ष अणुओं, और वर्गणाओंके साथ मिलकर नए संघ या संग- (Electron और Proton) ही होते हैं। अतः जब ठन बना लेना-यह चक्रमई (Cvcle) क्रिया अपने श्राप भी कोई एक बनावट टूटती या बिखरती है तो दूसरी मानव और कल्पनादिके फल स्वरूप होती ही रहती है। बनावटें तुरन्त बन या तैयार हो जाती हैं-जिनमें बाहरसे इसे हम 'कों का रसायनिक सम्मिश्रण' कह सकते है। आने वाले पुद्गलोंका भी भाग रहता है। इसके अतिरिक्त यह कर्मोंका रासायनिक सम्मिश्रण (Chemicale बनावटें बनने और टूटनेके कारण तथा कम्पनोंके कारण Componding ) होकर नए नए पुरज सङ्गठन बन पुद्गल विमित रूपों में शरीरसे निकलता भी रहता है। जाना ही "बंध" है। धाश्रवके कारण मैं लिख चुका हूँ। भावार्थ यह कि एक या कई पुद्गल पुस्जोंकी बनावटें बंधके लिए शास्त्रोंमें पांच कारण बतलाए गए हैं- टूटकर कुछ नई भी बन सकती हैं। बन्ध' का टूटना ही मिथ्यात्व. अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । बंधके निर्जरा' है । लेकिन एक कर्मकी निर्जरा' होकर दूसरे चार प्रकार भी कहे गए हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग बन्ध भी हो सकते हैं या होते रहते हैं। और प्रदेश । तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व विरति आदि यदि अनन्तकाल तक ये निर्जराएं और बन्ध अथवा द्वारा मानवके अन्तः प्रदेश में इस प्रकारके कम्पन होकर और निर्जरा, एकके साथ एक या एकके बाद एक होते ही
कालिक अथवा वर्गणात्मक सह सङ्गठनों और पुजामें रहना फिर तो श्रात्मा कभी भी मुक्त नहीं हो सकता(जो पर्तके उपर पर्तकी तरह बैठे रहते हैं)ऐसी हलचल 'मोक्ष' नहीं पा सकता। ऐसी बात नहीं है। मोक्ष होने में पैदा होती है कि प्रास्रव-द्वारा रासायनिक सम्मिश्रण आत्माका चेतन गुण और स्वाभाविक उद्ध्वगति सहायक अथवा 'बन्ध हो जाता है। बंधका रूप या प्रकार कैसा है होनी है। इसमें 'काललब्धि' और 'निमित्त' को भी या होता है? उसको यहां प्रकृति स्थिति प्रादि भेदों द्वारा प्रास्माका पौगलिक शारीरिक संयोग होनेसे आवश्यकता बतलाया गया है। मानवकी जिस प्रकृति या स्वभावको होती है फिर भी मूल कारण प्रात्माकी चेतना ही है। जो 'कर्माणु (पुद्गल कर्मवर्गणाएं) एक खास तरहका निमित्तका अर्थ है कि व्यक्तिके चारों तरफके वातावरण बनाते हैं उन कीटाणुनाके बन्धको 'प्रकृतिबंध' कहते हैं। और उसकी परिस्थितियां अनुकूल हों और कालजन्धिका ये भाचार, व्यवहार, अथवा किस प्रकारके कर्म हो- अर्थ है कि मानव शरीरके अन्दर कर्माणवर्गणाओंका इनको स्थापित या निर्मित या निश्चित कर देते हैं। परिवर्तन होते होते जिस समय ऐसा निर्माण हो जाय कि स्थिति बंधका अर्थ है कि किस कर्माणुपुज्जका असर कब- वह मोक्षके उपयुक्त कर्म करनेके लायक बन जाय । पारमाका होगा और कब तक रहेगा । इत्यादि अनुभाग बंध- की शुद्धि या कोंकी शुद्धि गुणस्थानानुसार धीरे-धीरे का अर्थ है तीन या मम्द फलदानकी शक्ति । प्रदेश बंधका उत्तरोत्तर होतो ही रहती है। पर इसके लिए भी जरूपी अर्थ है किन किन प्रकृतियोंके कौन कौन कर्मपुब्ज कितनी यह है कि ऐसे "कर्मपुज्जों" का निर्माण न हो जो सम्यक संख्याओंमें मिले । इनके अतिरिक्त भी बंधके दस भेद दर्शन ज्ञान और चरित्रमें अनन्त कालीनरूपसे बाधक हों।
और है बंध, उदय, उदीरणा. सना; उत्कर्षण, अपकर्षण, यहीं "संवर" की आवश्यकता पड़ती है। पांछित कर्मसंक्रमण, उपशम, निधत्त और निकाचित । इनके विस्तृत पुजा (पौगलिक वर्गवारमक निर्माण या संघ या सगभेद विमेद और विधिवत् सुव्यवस्थित विशद विवरण ठन)का रासायनिक सम्मिश्रण द्वारा सुद्ध बन्ध होनेसे शास्त्रोंसे जाना जा सकता है।
रोकना ही "संवर" है । संघरके लिये द्रव्य और भावको