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________________ किरण २] कर्मोंका रासायनिक सम्मिश्रण [६३ मस्तिष्कोंकी प्रान्तरिक बनावटमे विभिनता होनेके कारण है। जिन वर्गणाओंकी प्रेरणाके अन्तर्गत कोई कर्म हो ही उनके सोचने-विचारने आदिकी शक्तियाँ भिन्न-भिन्न जाता है उन वर्गणाओंका संगठन बिखर जाता है इसीको होती है। मस्तिष्क या मन वगैरह भी पुद्गल निर्मित हो 'निरा' कहते है। एक कर्म होने पर उस कर्मकी प्रेरक है । मानवका शरीर मानवोचित काम करता है जब कि वर्गणाओं में या उनके पूजीभूत संगठनमें परिवर्तन होकर किसी पक्षीका शरीर, किसी पशुका शरीर, किसी कीट- नए कर्म द्वारा नए कम्पनोंके कारण नई वर्गणाएं हिर पतंगोंका शरीर या किसी पेड़ पौधेका शरीर वही काम बनती भी जाती हैं वर्गणात्मक निर्माणोंका असर या प्रभाव कर सकता है जिस कामके योग्य उस शरीरकी योग्यता, भी उनकी रचनाके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकारका होता बनावट या निर्माण है। हर एक अंग उपांगांके काम भी है-जैसे कोई वर्गणाएं एक बार कर्म कराकर बातम हो उनको बनावटके अनुसार ही होते हैं। इसी तरह ये ज्ञाना- हो जाती है कोई गेज रोज वर्षों तक वही कर्म वरणीय प्रादि वर्गणाएँ भी पुद्गल पुंज हैं जो कार्माण कराती रहती हैं कोई कभी खास अम्तर पर शरीरको या तदनुसार बने औदारिक शरीरकी बनावटांको एक ही तरहके कम कराती हैं। कोई एक एकरणमें ऐसा उत्पन्न करने में या निर्मित करने में कारण हैं जिनसे वे बनती विनसती हैं कोई बहुत बहुत वर्षों तक रहती हैं ही या उसी तरहके काम हो सकते हैं, जैसी उनकी बना- कुछ कई जन्मों जन्माम्मरों तक रहती हैं इत्यादि । परिवट हैं। अथवा यो समझिये कि ज्ञानावरणीय वर्गणाओं वर्तन हर एकमें कमवेश होते रहते हैं। मानव शरीर का जीभूत असर या प्रभाव ही ऐसा होता है कि मनुष्य और मन कुछ न कुछ हरकत या कर्म तो हर दम करते ही वैसा ही व्यवहार करे जैसा उन वर्गणाओंसे बने वर्गणा- रहते हैं। मानवके अन्तः शरीरमें अलग-अलग कोको स्मक शरीरके उस भागका निर्माण दुपा है जो मानवके कराने वाली या अलग अलग इन्द्रियोंको सञ्चालित करने ज्ञानका स्रोत और नियन्त्रण एवं संचालन करने वाला है। बाली वर्गणाओंकी बनावट या पुज या संघ या संगठन स्वयं श्रात्माको छोरकर यह सब शारीरिक निर्माण पौद्ग- भी अलग-अलग है। एकही समय हो सकता है कि कई. लिक है-पुद्गल वर्गणाओंसे विभिन्न रूपोंमें बना विभिन कई पुज समठन एक साथ ही कार्य शील या प्रभावशील प्रभावों वाला है। हो जाय पर मानवके शरीर इन्द्रियों और मनका निर्माण पुद्गल धाराओंका श्रास्रव हर समय होता ही रहता ऐसा है कि कर्म एक समयमें एक हो प्रकारकी वर्गणाम्रो है और मन, वचन, कर्म द्वारा मानव शरीर में और शरीर के प्रभावमें होता है जिधर मानवका मन भी लगा रहता स्थित प्रात्माम भी कम्पन-प्रकम्पन होते ही रहते हैं और है-बाकी दूसरी वर्गणाएं या उनके पुज उस समयमें इनके कारण इन ज्ञानवरणी, दर्शनावरणी श्रादि वर्गणा- बिखरकर बेकार और निष्फल हो जाते हैं। वर्गणात्रोके स्मक पुजीभून पोद्ल क अंतः कार्माणशरीरमें भी तब- पूजीभृत सगठनोंका इस प्रकार कर्म कराकर बिस्वा जाना दोलियाँ या परिवर्तन भी होते रहते हैं। मानवका कोई या किसी एक प्रकारको वर्गणाओंके प्रभावमें एक कर्ममें भी कर्म उसके अंतः शरीरके किसी विशेष कर्माण वर्ग लगे रहने कारण दूसरी वर्गणाओंके पुम्जोंके प्रभावका णाओंके पूजीभूत संघ या संगठनके प्रभ यमें ही होता है उदय' यदि उसी समयमें हुआ तो उनका अपने श्राप अथवा कितनी ही प्रकारकी वर्गणाओंका सम्मिलित प्रभाव बिम्बरकर निष्फल हो जाना दोना हालतोंमें ही कर्मोकी किसी समय किसी एक कर्मको प्रेरित करता है। अनादि- 'निर्जरा होती है। यह बात ठीक उसी तरह होती है जब कालसे अब तक न जाने कब या वबसे कब तक-कसं भिन्न-भिन्न रासायनिक दृग्य इकट्ठा किए जाने पर मिल इकत्रित एवं पूजीभूत किमी विशेष कर्माण वर्गणा विम्बरकर नए-नए द्रव्योंमें परिणत हो जाते हैं। एक प्रभावमें ही मनुष्य कोई काम किसी समय करता है। उदाहरण मै यही दंगा। यदिगंधककी तेजाब (Hison) मनुष्य प्रायः कोई भी कर्म इन पौद्गलिक (कर्माण वर्ग और तांबाको इकट्ठा करें तो तांबेके माथ तेजाबको एक णाओंके प्रभाव या प्रेरणाके वशीभूत ही करता है। मनो- प्रकारका भाग मिलकर तूतिया (Cuson) बन जायगा देशमें हलचल या मनको प्रेरित कर भाषकर्म होते है और और कुछ जल (Gison) और कुछ हाइड्रोजन गैस इन्द्रियों या शरीरके अंगोंको संचालित कर द्रव्यकर्म होते (H) अलग होकर निकल जायगा -इत्यादि । इसी तरह
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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