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अनेकान्त
किरण २]
ऐसे कर्म करनेको प्रेरित हो या को जो अधिकाधिक प्रारमा- नहीं लेते संवर और अकामनिर्जराको सुविधा उन्हें प्रायःनहीं को शुद्ध बनानेमें आगे आगे सहायक हों। पाप और मिलती, न वे मोक्ष हो पा सकते हैं। इसीलिए मोक्ष पानेपुण्यकी व्याख्या भी हम प्रायः इसी अर्थ में करते हैं। के लिए मानव-शरीरका होना और उपयुक्त शिक्षा, दीक्षा, पापकर्म वे कर्म हैं जिनसे प्रारमाको बांधने वाले पुद्गलों संस्कार और परिस्थितियोंका होना भी आवश्यक है। की प्रकृति, अनुभाग इत्यादिमें वृद्धि हो उनका फल दुख गंदे वातावरणमें जहाँ बाहरी आस्रव गंदे ही होंगे दायक और प्रारमशुद्धि एवं पारम-विकासका हनन करने वहाँ मनकी विशेष शुद्धि होते हुए भी कोंके बंध उतने वाला हो। और पुण्य कर्म वे हैं जिन्हें ऊपर शुभ्र और शुद्ध नहीं हो सकते; क्याकि शुद्ध या शुभ्र बंध योग्य, अच्छे कर्मकी संज्ञा दी गई है-जिनसे प्रारमशुद्धि बढ़े, प्रास्रव (भाने वाले पुद्गल वर्गणात्मक पुज) की कमी पारमविकास बढ़े और पाप्मा मोक्षके अधिकाधिक निकट होगी। प्रारम-शनिमें अ धिक समय लगेगाहोता जाय । पर संसारमें रहने वाला प्राणी कषायोंसे देर होगी। इसलिए स्वयंकी सच्ची शुद्धि और पुण्यकर्म इतना बंधा और मोहमायासे (मोहनीय कर्मोमे) इतना या शुभ्र बंधांके लिए अपने चारों तरफके वातावरण और घिरा हना है कि पहले वह सब कुछ सांसारिक लाभ एवं व्यक्तियोंके आचरणोंकी शुद्धता भी आवश्यक है। सुख और सांसारिक हानि एवं दुखके रूपमें ही समझता
व्यक्ति मिलकर कुटुम्बका, कुटुम्ब मिलकर समाजका, और मानता है। इसीलिए इन संसारी गृहस्थ प्राणियोंके
समाज मिलकर किसी प्रान्तका, प्रान्त मिलकर किसी समाधान के लिए कर्मोके दो भाग कर दिए गए हैं शुभ्र
देशका, देश मिलकर किसी महादेशका और महादेश या पुण्यकर्म और अशुभ्र या पापकर्म और कर्मानुसार'उनके
मिलकर इस संसारका निर्माण करते हैं। अतः व्यक्ति फलोंको भी अनुभव द्वारा बतला दिया गया है कि कैसे
सारे संसारसे सम्बन्धित है। सारे संसारका वातावरण शुद्ध पुण्य कमौकाफल अच्छा, बांछित फलवाला, सुखदाई और
होनेसे ही व्यक्तिक भीतर आने वाले प्रास्त्रव भी शुद्ध भागे परिणामोंको अच्छा बनाने वाला होता है तथा पाप
होंगे और उसके भाव और कर्म भी अधिक शुद्ध होगे, कोका फल खुरा, दुखदाई, अवांछित फलोंको देनेवाला
जिनसे अान्तरिक कम्पनादि भी शुभबन्ध करने वाले ही और मागेके परिणामोंको बुरा बनानेवाला होता है।
होगे जिनका उत्तम फल होगा और तभी वह सच्ची उन्नति ___ मानव जैसे कर्म (द्रग्य और भाव) करता है वैसे
करेगा। व्यक्ति पर कुटुम्बका और कुटुम्ब पर व्यक्तिका वैसे उसके कार्माणशरीरमें परिवर्तन होकर उसका निर्माण
प्रभाव अक्षुण्ण रूपसे पड़ता है । इसी तरह समाज और ऐसा हो जाता है कि जैसी प्रकृति उसमें सुदृढ़ हो जाय
व्यक्तिका सम्बन्ध है। व्यक्ति जैसा कर्म करता है वैसा वैसी ही योनिमें वह आगे जाकर जन्म लेता है। एक
ही उसके भविष्य कर्मका स्रांत या श्रान्तरिक वर्गणाओंके मानवकी प्रकृति यदि लकी समानता करेगी तो वह
निर्माण में परिवर्तन होकर नए वर्गणात्मक संगठन बन मरनेके बाद नए जन्ममें बैलका हो शरीर धारण करेगा।
जाते हैं, जो भविष्यमें उससे अपनी प्रकृति आदिके अनुमानवमें अच्छा बुरा सोचने-विचारमेकी शक्ति है-- उसके
सार कर्म कराकर वैसे ही फल भी दंत है जिसे हम 'भाग्य' भारमाकी संज्ञान चेतना शक्ति अधिक है, इससे वह किसी
या भाग्यके ही अर्थ में कर्म' कहते है। यक्तिक कर्म मिलहद तक अपने कर्मोका कुछ नियंत्रण एवं सुधार कर सकने
कर दशक कर्म और भाग्यका निर्माण होता है तथा देशके में समर्थ है और तब उसके कर्मों और भावोंके अनुमार
कर्म मिलकर संसारके कर्म और भाग्य बनाते हैं । संस रके ही कार्माण शरीरकी प्रकृति और अगले जन्मको योनि
भाग्य या कर्माका प्रतिफल और प्रभाव भी देशोंके भाग्य बनती है। पर जानवरों और कोड़ों आदिके शरीरमें मन.
या कर्मों पर और देशा द्वारा व्यक्यिोंके भाग्यों और कर्मों या बुद्धिका विकास या सोचने-विचारनेकी शक्ति अथवा
.. पर अतुण्ण रूपसे होता या पड़ता है । मानव अकेला कममें सुधार करनेकी जरा भी क्षमता नहीं होनेसे उनकेकर्म अपने आप मास्त्रव और कम्पनों द्वारा बिखरते बनते हैं इस विषयमें संतपमें मैंने अपने लेग्व-'विश्व एकता और रहते हैं और योनियों एक श्रृङ्खलामें एकमे दूसरी बदलती शान्ति' में कुछ विवरण दिया है उसे देखें । 'शरीरके जाती है; पर जब तक वे मन-बुद्धिधारी मानवका जन्म रूप और कर्म' नामक लेख भी देंखे । ये दोनों लेख ट्रैक्टके