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सत्य धर्म
(श्री १०१ पूज्य उक्षक गणेशप्रमादजी वर्णी) माज सत्यधर्म है सत्यसे आत्माका कल्याण होता है। दसरेके मर्मको छेदने वाले हो जाते है। परे, ऐसी हसी इसका स्वरूप अमृतचन्द्राचार्यने इस प्रकार कहा है कि- क्या कामकी जिसमें तुम्हारा तो विनोद हो और दूसरा यदिदं प्रमादयोगाइसमिधान विधीयते किमपि। ममातक पीड़ा पावे। कोई कोई लोग इतने कठोर वचन तदनृतमपि विज्ञेयं तदु-भेदाः सन्ति चत्वारः ॥ ११ बोजते है-इतना रूखापन दिखलाते है जिससे कि
प्रमादके वश जो कुछ अन्यथा कहा जाता है उसे समभावीका धैर्य भो टूटने लग जाता है कितने ही असत्य जानना चाहिये । उसके चार भेद हैं यहाँ प्राचार्यने असम्बद्ध और अमावश्यक बोते हैं। उनका यह चतुर्थ प्रमादयोग विशेषण दिया है, प्रमादका अर्थ होता है प्रकारका असत्य है। ये चारों ही असत्य प्राणीमात्रके कषायका तीव उदय, कषायसे जो झूठ बोला जाता है वह दुःखके कारण हैं। यदि सत्य बोला जाय तो उससे अपनी अत्यन्त बुरा है। असत्यका पहला भेद 'सदपलाप' है जो हानि ही कौनसी होती है सो समझ में नहीं पाता । सत्य वस्तु अपने द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे विद्यमान वचनसे दूसरे के प्राणोंकी रक्षा होती है, अपने आपको है उसे कह देना कि नहीं है, जैसे प्रास्मा है पर कोई कह सुखका अनुभव होता है। हमारे गाँवकी बात है। मडावरेमें
कि मारमा नहीं है वह 'सदपलाप' कहलाता है। दूसरा मैं रहता था मेरा एक मित्र था हरिसिंह । हम दोनों साथभेद 'असावन' है जिसका अर्थ होता है अमद् अवि- पढ़ते थे बड़ी मित्रता थी। इसके पिताका नाम मौजीलाल चमाम पदार्थका सद्भाव बतलाना । जैसे घट न होने पर था और काकाका नाम कुंजीलाल। दोनोंमें न्यारपन भी कह देना कि यहाँ घट है। तीसरा भेद वह है जहाँ हुआ तो कुजीलानको कुछ कम हिस्सा मिला जिससे वस्तुको दूसरे रूप कह दिया जाता है जैसे गायको वह निरन्तर लाता रहता था। एक दिन मौजीलालने घोदा कह देना । गहित पापसंयुक्त और अप्रय जो वचन कुंजीलालको खूब मारा और अन्तमें अपना अंगूठा अपने है वह चौथे प्रकारका श्रमस्य है। चुगलखोरी तथा हास्यसे ही दाँतामे काट कर पुलिसमें रिपोर्ट कर दी, उल्टा कुजीमिश्रित जो कठोर वचन है वह गर्हित कहलाते हैं। बाजे लाल पर मुकदमा चला दिया। हमारा मित्र हरिसिंह बाजे भादमी अपनी पिशुम वृत्तिसं संसारमै कलह उत्पन हमसे बोला कि तुम अदालतमै कह देना कि मै लुहर्रा करा देते हैं। कहो, मूल में बात कुछ भी न हो परन्तु गाँव में अपने चाचा यहाँ जा रहा था बीचमे मैने देखा चुगलखोर इधर उधरकी लगाकर बातको इतना बढ़ा देते कि कुंजीलाल और मोजीलालने खूब झगड़ा हो रहा था है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। पं. बलदेवदापजामें तथा कुंजीलाल मौजीलालका अंगूठा दातासे दबाए हुए एक बड़ी अच्छी बात थी।वह श्राप सबका भी मान्य था। मैंने बहुत मना किया पर वह न माना। मित्रका होगी। उनके समक्ष कोई जाकर यदि कहता कि अमुक अाग्रह देखकर मुझे अदालतमें जाना पड़ा, जब मेरा प्रादमी मापकी इस तरह निन्दा करता था वे फौरन नम्बर अाया और अदालतने मुझसे पूछा कि क्या जानते टोक देते थे भाई वह पुराई करता हो इसका तो विश्वास हो मैने कह दिया कि मैं अपने चाचाके यहाँ लहरी नहीं, पर श्राप हमारे ही मुंह पर बुराई कर रहे हों- जा रहा था रास्तेमें इनका घर पड़ता था मैंने देखा कि गालियाँ दे रहे हों। मुझे सुननके लिये अवकाश नहीं। कुंजीलाल और मौजीलालमें खूब जड़ाई हो रही थी और मैं तो तब मानूंगा जब वह स्वयं श्राकर हमारे सामने कुंजीलाल मौजीलालका अंगूठा दाँतोंसे दबाये हुए था। ऐसी बात करेगा और तभी देखा सुना जायेगा । यदि अदालतने पूछा और क्या जानते हो? मैंने कहा और यह ऐसा अभिप्राय सब लोग करलें तो तमाम दुनियाके टेटे जानता हूँ कि हारसिंहने कहा था कि ऐसा कह देना। टूट जाय । ये चुगल जिस प्रकार आपकी बुराई सुनाने अदालतको बात जम गई कि यह मौजीनाजने मूठा माते है वैसी आपकी प्रशंसा नहीं सुनाते।
मामला खड़ा किया है इसलिये उसी वक्त खारिज कर कितने ही भादमी हंसी में ऐसे शब्द कह देते हैं जो दिया और मौजीलालको जो हिस्सा उसने ज्यादा रख