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________________ किरण ४] उ.म मार्दव [ १२५ प्रकार लोकापवादके भवसे जिनधर्मको नहीं छोड़ देना। समयकी भोर देखो, यदि वह भी अपराधी हो तो अपने उस निराश्रित अपमानित स्त्रीको इतना विवेक बना रहा। बच्चों लव-कुशकी भोर देखो और एक बार पुनः घरमें इसका कारण क्या था उसका सम्यग्दर्शन । आज कबकी प्रवेश करो, पर सीता अपनी दतासे व्युत नहीं हुई, उसने स्त्री होती तो पचास गालियाँ पुनाती और अपने समानता- उसी वक्त केश उखाड़कर रामचन्द्रजीके सामने फेंक दिये के अधिकार बतलाती । इतना ही नहीं सीता जब नारद और जाल में जाकर प्रार्या हो गई। यह सब काम सम्बजीके प्रायोजन-द्वारा लव-कुशके साथ अयोध्या वापिस ग्दर्शका है। यदि उसे अपने कर्म पर भाग्य पर विश्वास न पाती हैं एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद पिता पुत्रका मिलाप होता तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती थी। होता है, सीताजी लज्जासे भरी हई राजदरबारमें पहुँचती अब रामचन्द्रजीका विवेक देखिये, जो रामचन्म हैं उसे देखकर रामचन्द्र कह उठने हैं-'दुष्टा! तू बिना सीताके पीछे पागल हो रहे थे वृक्षोंसे पूछते थे कि क्या तुमने शपथ दिये-बिना परीक्षा दिये यहाँ कहाँ ? तुझे लज्जा मेरी सीता देखी है। वही जब तपश्चर्या में लीन थे सीवनहीं पाई ।' सीताने विक और धैर्य के साथ उत्तर दिया के जीव प्रतीन्द्रने कितने उपसर्ग किये पर वह अपने ध्यानकि मैं समझो धी मापका हृदय कोमल है, पर क्या से विचलित नहीं हुए । शुक्लध्यान धारणकर केवलिकहूँ? आप मेरी जिस प्रकार चाहें शपथ लें । रामचन्द्रजी अवस्थाको प्राप्त हुए । ने उत्तेजनात्मक शब्दोंमें कह दिया कि अग्निमें कृदकर सम्यग्दर्शनसे पारमा प्रशम संवेग अनुकम्पा और अपनी सच्चाईकी परीक्षा दो। बड़े भारी जलते हुए अग्नि- आस्तिक्य गुण प्रगट होते है जो सम्यग्दर्शनके अविनाभावी कुण्ड में सीता कृदनेको तैयार हुई । रामचन्द्रजी लघमणमे हैं। यदि आपमें यह गुण प्रकट हुए हैं तो समझ लो कि कहते हैं कि सीता जल न जाय । लचमणने कुछ रोषपूर्ण हम सम्यग्दृष्टि है। कोई क्या बतलायेगा कि तुम सम्यशब्दों में उत्तर दिया, यह आज्ञा देते समय नहीं सोचा। दष्टि हो या मिथ्यादृष्टि । अनन्सानुबन्धीकी कषाय कः वह सती है. निर्दोष है, भाजपाप उसके अवरडशीलकी माहसे ज्यादा नहीं चलती, यदि थापकी किसीसे सफाई महिमा देखिये उसी समय दो देव केवलीको वन्दनास लौट होने पर छः माह तक बदला लेनेकी भावना रहती है तो रहे थे, उनका ध्यान सीताके उपसर्ग दूर करनेकी भोर समझ लो अभी हम मिथ्यावादी हैं। पायके असंख्यात गया, सीता अग्निकुण्ड में कूद पड़ी और कृढ़ते ही साथ लोकप्रमाण स्थान है उनमें मनका स्वरूप यों ही शिथिल जो अतिशय हुमा सो सब जानते हो । सीताके चित्तमें हो जाना प्रशमगुण है। मिथ्यादृष्टि अवस्थाके समय इस रामचन्द्र जीके कठोर वचन मुनकर संसारसे वैराग्य हो जीवकी विषय कषायमें जैमी स्वछद प्रवृत्ति होती है चुका था। पर "निःशल्यो व्रती" व्रतीको निःशक्ष्य होना वैसी सम्यग्दर्शन होने पर नहीं होती है। यह दूसरी बात चाहिए, यदि बिना परीक्षा दिए मैं व्रत लेती हूँ तो यह है कि चारित्रमोहके उदयसे वह उसे छोड़ नहीं सकता शल्य निरन्तर बनी रहेगी, इसलिये उसने दीक्षा लेनेसे हो, पर प्रवृत्तिमें शैथिल्य अवश्य आजाता है। शमका पहिले परीक्षा देना आवश्यक समझा था । परीक्षामें वह एक अर्थ यह भी है जो पूर्वकी अपेक्षा अधिक ग्राम हैपास हो गई, रामचन्द्रजी उससे कहने हैं देवी ! घर चलो सद्यः कृतापराधी जीवों पर भी रोष उत्पन्न नहीं होना अब तक हमारा म्नेह हृदयमें था पर लोकलाजके कारण प्रशम कहलाता है । बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करते समय आंखों में आगया है। सीताने नीरस स्वरमें कहा- रामचन्द्रजीने रावण पर जो रोष नहीं किया था वह इसका "कहि सीता सुन रामचन्द्र, संसार महादुःख वृक्ष कंद" उत्तम उदाहरण है। प्रशमगुण तब तक नहीं हो सकता जब तक अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी क्रोध विद्यमान है, उसके तुम जानत पर कछु करत नाहि.........." छटते ही प्रशमगुण प्रगट हो जाता है। क्रोध ही क्यों रामचन्द्रजी! यह संसार दुःखरूपी वृक्ष की मदहै अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी मान माया-लोभ सभी कषाय अब मैं इसमें न रहूँगी । सच्चा सुख इसके त्यागमें ही है। प्रशम गुणके घातक है। रामचन्द्र जीने बहुत कुछ कहा, यदि मैं अपराधी हैं तो (सागर भाद्रपद )
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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