________________
२]
अनेकान्त
[किरण ३
-
अचेतन जब पदार्थोंसे कुर्सी, मेज, तस्त, किवाद, सत्ता' का नहीं रहना ही है और चेतना रहने या पाए बदी, खवाऊँ, क्स, सम्बक धादि विविध वस्तएं बनाये जाने का अर्थ उस 'सत्ता' का रहना ही है। इसी 'सत्ता जाने पर भी उनकी जपता और पुदगलपने (Matter) को-जिसका गुण चेतना है या जिसके विद्यमान रहनेसे का प्रभाव नहीं होता, प्रत्यत वह सदाकाल ज्योंका त्यों किसी शरीरमे चेतना रहती है भारतीय पार्शनिकोंने बना रहता है। इससे ही उसके सदाकाल अस्तित्वका
-
'भारमा' या 'जीव' कहा है भारमाका ही अपना गुण पता चलता है। चेतना जब वस्तुओंका गुण नहीं
चेतना है। जहाँ मारमा होगा वहाँ चेतना होगी जहाँ है किन्तु वह तो जीवका असाधारण धर्म जो उसे भारमा नहीं रहेगा वहाँ चेतना नहीं होगी। पर यह चेतना बोरकर अन्यत्र नहीं पाया जाता फिर भी दोनोंका भी किसी शरीर या किसी रूपी वस्तुमें (जिसे हम शरीर अस्तित्व शुदा शुदा है। अतः अचेतनके अस्तित्व कहते हैं) ही पाई जाती है कि बिना शरीरके कहीं भी (existance) के समान उसका भी 'अम्तिव चेतना यों ही अपने पाप परिलक्षित नहीं होती। इसका है और सर्वदासे था या सर्वदा रहेगा। अचेतन वस्तुओं
अर्थ यह होता है कि संसारमें बिना किसी प्रकारके शरीरके और चेतन देहधारियों (वस्तुभी) में इतना बड़ा विभेद
प्राधारके प्रास्मा या चेतनाका होना या पाया जाना सिद्ध इत्या रूपसे हम पाते हैं कि यह मानना ही पड़ता कि नहीं होता । चेतना और वस्तु शरीरका संयुक्तरूपही हम 'चेतना' कोई ऐसा गुण है जो जब-वस्तुओंका अपना
जीवधारीके रूपमें पाते हैं। परन्तु चुकि चेतना निकस गुवनहीं हो सकता-पयोंकि यदि जब वस्तुओंमें चेतना
जाने पर भी शरीर ज्योंका स्या बना रहता है उसका का गुण स्वयं रहता तो हर एक सूक्ष्म या स्थून जड़ वि
विघटन नहीं होता है इससे हम मानते हैं कि चेतनाका बस्तुमें चेतवा और अनुभूति,शाम थोड़ा या अधिक अवश्य आधार कोई अवग 'सत्ता' है जो वस्तुके साथ रहते हुए रहता पा पाया जाता । पर ऐसी बात नहीं है। इससे भी उससे अलग होती है या हो सकती है। इस तरह हमको मानना पलता है कि चेतनाका माधार या कारण जड़ वस्तुकी और पाल्माकी अलग अलग अवस्थिति जोबनी हो उसका एक अपना अस्तित्व है और चेतना (existencil) और 'सत्ताएँ' मानी गई। उसका स्वाभाविक गण है-जो केवल मात्र जदमें सर्वश हर एक वस्तुके गुण उस वस्तुके साथ सर्वदा उसमें भरण्य या अनुपरियत (AbHent) है। किसी भी रहते हैं-गुण वस्तुको कभी भी छोडते नही। दो वस्तुयें जीवधारीको लीजिये-उसका जन्म होता है और मृत्यु मिलकर कोई सीसरी वस्तु जब बनती है तब उस तीसरी होती है। मृत्युके समय हम यह पाते हैं कि जीवधारीका बस्तुके गुणभी उन दोनों वस्तुओंके गुणोंके संयोग और शर या बाह्य रूप तो ज्यों का स्यों रहता है पर चेतना सम्मिमणके फलस्वरूपही होते हैं-बाहरसं उसमें नये लुप्त हो गई होती है। शरीरके चेतना रहित हो जानेको गुण नहीं पाते। इतनाही नहीं पुनः जब वह तीसरी ही लोकभाषामे मृत्यु कहते हैं। जब तक किसी शरीरमें वस्तु विघटित होकर दोनो मुख वस्तुनी या धातुचाम चेनमा रहती है उसे जीवित या जीवनमुक्त कहते हैं। परिणत हो जाती है तो उन मुख वन्नुभांके गुणभी शरीर तो वस्तुओं या विभिन्न धातुओंसे बना रहता है अलग अलग उन वस्तुनोंमें ज्याके त्यो संयोगसे पहले
और यदि चेतना शरीरको बनाने वाले धातुओंका गुण जैसे थे वैसेही पाए जाते है-न उनमें जरासी भी कमी रहता तो शरीरसे चेतना कभी भी लुप्त नहीं होती-पर होनी है न किसी प्रकारको वृद्धि ही। यही वस्तुका स्वभाव किम यह बात प्रत्यक्ष रूपसे देखते या पाते हैं इससे या धर्म है और सृष्टिका स्वतःस्वाभाविक नियम । इसमें हमें मानना पड़ता है कि चेतना शरीरका निर्माण करने विपरीतता न कभी पाई गई न कभी पाई जायगी। वाली वस्तुओं या धातुनोंका अपना गुण नहीं हो सकता। दो एक रसायनिक पदार्थोका उदारहण इस शाश्वत हसचेतनाका बाधार या पोत क्या है या वह कौनसी 'सत्य' को अधिक खुलासा करने में सहायक होगा । तूतिया 'सत्ता' जो जब तक शरीरमें विद्यमान रहती है तब तक (नीला थोथा Copper Sulphate या Cuson) उसमें चेतना रहती है और वह सत्ता हट जाने पर में तांग, गंधक और प्राक्सिजन निश्चित परिणामों में चेतना नहीं रहती-अथवा चेतना नहीं रहनेका अर्थ उस मिले रहते हैं। दतियाके गुण इन मिश्रणवानी मूल