SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ३] मात्मा, चेतना या जीवन [ १ और श्रृंखलाबद्ध समाधान संसारके सामने बड़े प्राचीन रहनावदाही हानिकारक है। सुशान या सही ज्ञानसे व्यक्तिकी और मानवताकी सरची उत्तिो काबसे रखा है-परन्त धार्मिक कट्टरता द्वेष विद्वेषही छोटे बड़ेकी भावना तथा सुज्ञानशी कमी और तरह तरहके सकती है। दूसरे कारणोंसे वह शुद्ध ज्ञान कुछही लोगों तक सीमित जो कुछ हम इस विश्व या संसारमें देखते या पाते रह गया तथा संसारमें फैल नहीं सका। अब इस तर्क- हैं उस सबका अस्तित्व (Existance) है। यह अस्तित्व वह प्रत्यक्ष मत्य है जिसका निराकरण करना था जिसे बुद्धि-मयके युगमें इस शुद्ध, मही सुज्ञानको स्वकल्याण नहीं मानना श्रम तथा गलती है। कुछ नहीं (शूम्ब, और मानव कल्याण के लिए विशद रूपसे विश्व में फैलाना हमारा कर्तव्य है। Vacum) से कोई वस्तु (Matter)न उत्पन्न हो सकती है न बन या बनाई जा सकती है। मिहीसे ही बड़ा विविध स्थानों, समयां, वातावरणों में पैदा होने बनाया जा सकता है या बन सकता है बिना बस्तुके पलने और रहमेके कारण मनुष्यकी प्रवृत्तियों में महान् आधारके वस्तु या वास्तविक कुछ नहीं हो सकता । संसार विभेद और अन्तर तथा विभिन्नता रहती हैं। योग्यता में जो कुछ है वह सर्वदासे था और सर्वदा रहेगा-यही शिक्षा और ज्ञानकी कमी-बशीभी सभी जगह सभी न वैज्ञानिक, सुतर्कपूर्ण और बुद्धि युक्त सत्य है । इसके विपव्यक्तियों में रहतो ही हैं। इन विविध कारणाम विचार धर्म रीत कांईभी दूसरी धारणा गलत है। वस्तुओके रूप और दर्शनकी विविधता होना भी स्वाभाविक ही है । यदि परिवतित होते या अदलते बदलते रहते हैं । मिट्टीके ये स्वयं स्वाभाविकरूपमें ही विकसित होते तो कोई हर्ज कणोंको इकट्ठा कर पानीकी सहायतासे निर्माण योग्य नहीं था-अंतमें विकासक चरमोत्कर्षपर सब जाकर एक बनाकर घड़े का उत्पादन होता है और पुन:घदा टूट फूट जगह अवश्य मिल जाते, पर सांसारिक निम्न स्वार्थ और कर ठिकरों या कणों इत्यादिमें बदल जाता है। हो सकता अहंकारने ऐमा होने नहीं दिया-यही विडम्बना है। है कि यह हमारा संसार (पृथ्वी) किसी समय वर्तमान करीब करीब सभी अपनेको मही और दूसरेको कमवेश जलते सूर्यकी तरह ही कोई जलता गोला रहा हो या धूलग़लत कहते हैं। एक मरेकी बात समझ कर एक दूसरेसे कणां और गैमों का 'लॉन्दा' सा हो और बादमें इनमें मिलजुल कर एक निश्चित अंतिम मार्ग निकालना लांग शक्लें बनती गई हो, तरह तरहके रूप होते गए हो। पसन्द नहीं करते-संसारकी दुर्दशाओंका जनक और शकलों और रूपांका बनना बिगड़ना तो अबभी लगा हो मुख्य स्रोत विरोधाभास रहा है। मारा संसार एक बहुत हा है। उम 'गोले' या 'लोन्ने' में जीव और अजीव बड़े परिवारकी तरह एक है और मानवमात्र एक दृमरेम दोनांही सूक्ष्म या स्थूल रूपमें रहे ही होंगे । वस्तुयोंके संबन्धित निकटतम रूपसे उस परिवारक मनस्य हैं। प्रय सूक्ष्म और स्थूल रूप एक दूसरेके संगठनीर विधानमं तो विज्ञानके बहुव्यापी विकास और यातायातके साधनोंकी बनते बिगड़ते रहते हैं। पर्वथा नया कुछभी पैदा नहीं उन्नतिके कारण मानवमात्र और अधिक एक दूसंरके हो सकता न पुरानेका सर्वथा नाश हो सकता है मयांग, निकट आ गये हैं और पाते जाते हैं। हर एकका कल्याण वियाग, संघठन निघठन और परिवर्तन इम्यादि द्वारा ही हर एक दूसरे और सबके कल्याणमें ही मग्निहित है। हम कुछ नया उत्पन्न हुअा देग्वने या पाने है और पुरानका अब तो मानवमात्रके कल्याण द्वाराही अपना कल्याण पिनाश हुमा मा दीखता है । पर वास्तव में उसका होना समझकर सबका विरोधी और अज्ञान तथा कुज्ञानको विनाश नहीं होता, वह अपनी सत्ताको सदा कायम रखता जहांतक भी संभव हो सके दूर करना ही पहला कर्तव्य है इसी वह ध्र व भी कहलाता है। प्रत्येक पदार्थ बाह्य होना चाहिए परिण मनसे अपने स्वाभाविक गुणको नहीं छोडता, किंतु तर्क और बुद्धिकी कसौटी पर कमकर जो सिद्धांत वह ज्यों का त्यों बना रहता है । यदि उसके अस्तित्वसे ठीक, सही और सत्य जंचे उसेही स्वीकार करना और इन्कार भी किया जाय तो फिर पदार्थों की इयत्ता बाकीको भ्रमपूर्ण या मिथ्या घोषित करके छोडनाही बुद्धि- (मर्यादा) कायम नहीं रहती। चेतन, अचेतन पदार्थ अपने मानी कहा जा सकता है अन्यथा केवल रूढ़ियोंको पकडे अपने अस्तिस्वसे मदाकाल रहे हैं और रहेंगे ।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy