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________________ आत्मा, चेतना या जीवन (ले० अनंत प्रसादजी B. Se. Eng. 'लोकपाल') संसारमें हम दो प्रकार की वस्तुएँ देखते है । एक जैसे निर्जीव वस्तुओंकी किस्में रूप गुणादिकी विभिनिर्जीव और दूसरी सजीव | सजीवोंका भी बाहरी शरीर न्नताको लिए हुए अगणित, असंख्य और अनंत है उसी या रूपाकार निर्जीव वस्तुणों, धातुओं या रमायनोंका तरह जीवधारियोंको संख्या और किस्में भी रूप, गुणादि ही बना हुवा होता है। सजीवोंमें चेतना, ज्ञान और एवं चेतनाको कमीवेशी प्रादिकी विभिन्नताको लिए अनुभूति रहती है जबकि निर्जीव वस्तुएँ एकदम अचेतन, हुए अगणित, असंख्य और अनंत हैं । जीवधारियोंका मज्ञान और जब होती हैं। मानव, पशु, पक्षी, कृमि कीट विभाग उनकी चेतनाकी कमीवेशी अनुसार जैन शास्त्रोंमें पतंग, मछली, पेड़ पौधे इत्यादि जानदार, समीव या बढी सूक्ष्म रीतिसे किया हुआ मिलता है। एक इन्द्रिय वाले, जीवधारी है पहाड, मदी, पृथ्वी, पत्थर, सूखी लकडी दी इन्द्रियो वाले, तीन इन्द्रियों वाले, चार इन्नियों वाले, शीशा. धातुएं, जहाज, रेल, टेलीफोन, रेडियो, बजली, पाँच इन्द्रियां वान तथा पाँच इन्द्रियोंमे मन वाले और प्रकाश, हवा, बादल, मकान, इत्यादि निर्जीव बस्तुएँ। बेमन वाले करके कई मुख्य विभाग किए गए हैं। एक दोगों की विभिन्नताएं हम स्वयं देखते पाते और अनुभव इन्द्री वाले जीव वे हैं जिनमें चेतना ज्ञान या अनुभूति करते हैं। एक टेलीफोनके स्वभेक पास यदि कोई गाना कममे कम रहती है- ये प्रायः जड़ तुल्य ही है-फिरभी बजाना करे तो खंभेको कोई अनुभूति नहीं होगी-वह इनमें जीवन और मृत्यु है और शरीरके साथ चेतना भी जड़ है। टेलीफोनके यन्त्रो और तारों द्वारा कितने संवाद है-भलेही वह चेनना सूचमानिसूक्ष्म अथवा कममे कम जाते भाते हैं पर वे यन्त्र या तार उन्हें नहीं जान सकते हो पर रहती अवश्य है। यही चेतना जड़ या निर्जीव न समझ सकते हैं-उनमें यह शक्ति ही नहीं है । पर यदि और सजीव या जानदारके भेदको बनाती तथा प्रदर्शित मनुष्यसे कोई बात कही जाय तो वह तुरन्त उस पर करती है । चेतनाही जीवका लक्षण या पहिचान है। विचार करने लगता है और उसके अनुसार उसके शारीरिक अब प्रश्न यह उठता है कि निर्जीवोमे यह ज्ञान-अनुऔर मानसिक कार्य-कलाप अपने आप होने लगते हैं। भूतिमई चेतना क्यों नहीं रहती है और सजीवामे कहांसे एक पशु कोई चीज या रोशनी देवकर या आवाज सुनकर कैसे क्यों हो जाती या रहती है ? विभिन्न दर्शनो और ही बहुनमी बातें जान जाता है जबकि कोई निर्जीव वस्तु मतावलम्बियोंने इस समस्याको हल करनेके लिए विभिन्न ऐसा कुछ नहीं करनी न कर सकती है। एक आईने में विचारोंका आविष्कार कर रखा है। धर्मों और संप्रदायोंका प्रतिविम्ब कितनेभी पढ़ते रहें पाईना स्वयं उनके बारे में मतभेन प्रथमतः यहींसे प्रारम्भ होता है और संसारके को अनमति नहीं करता पर एक मानवको पाखामे चेही सारे भेदभावों एवं झगहोकी जडभी हम इसे ही कह सकते प्रतिविम्ब तरह तरहके विचार उत्पन्न करते हैं । जीव- है। मनुष्यने अनादिकालसे अबतक ज्ञान विज्ञानमे कितनी धारियांक मारने, पीटने, दबाने, बेधने, जलाने आदिसे वृद्धि की पर यह प्रश्न अबभी ज्यांका त्यो जटिलका पीड़ा या दुग्धका अनुभव होता है जबकि निर्जीवोंको वैसा जटिलही बना रहा। आधुनिक विज्ञानभी अबतक इसका कुछ भी नहीं होता। लोहे या चान्दीक लम्बे लम्बे तार समाधानात्मक एवं निर्णयात्मक कोई निश्चित उत्तर या खींच दिए जाते है या चदरें तैयार कर दिए जाते है, हल नहीं दे सका है । जितना जितना विद्वानोंने इसे सुलशीशेके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते है धातुश्रीको भागकी माने और समझने-समझानेकी चेष्टाकी यह उतनाही तापमें गला दिया जाता है पर उन्हे जराभी पीड़ा कष्ट अधिकाधिक उलझता और गृढ होता गया। भादि होते नजर नहीं पाते क्योंकि उनमें ज्ञान या चेतना जैनदर्शनने इस समस्याका बड़ाही विधिवत, व्यवएकदमही नहीं है स्थित बैज्ञानिक, परस्पर विरोधी बुद्धिपूर्ण, मुतर्कयुक्त
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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