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महत्वपूर्ण प्रवचन
(श्री 108 पूज्य पुस्तक गणेशप्रसादजी वर्णी) साधु कौन है ?
तब साधुने पाशीर्वाद दिया 'मार्जारो भव' इससे बह रही
विसाव हो गया। एक दिन पड़ा कुत्ता प्राया, वह विवाद जिन्होंने बामाम्यन्तर "परिग्रहका त्याग कर दिया
हर गया और साधुसे बोखा प्रभो! 'सुनो विभेमि' पर्वाद वह साधुहै। सचमुच में देखा जाय ती शांतिका स्त्रोत
मैं इसे बरता हूँ । साधु महारामने भाशीर्वाद दिया केवल एक निन्य अवस्थामें ही है। यदि त्यागी वर्ग
'श्वा भव', अब वह मार्जार कुत्ता हो गया। एक दिन हों तो भाप बोगीको ठीक राह पर कौन जगावे ।
बनमें महाराजके साथ कुलाबा रहा था अचामक मार्गमे
ब्यान मिल गया । कुत्ता महाराजसे पाखा-'प्यावाद अज्ञानतिमिरीन्धानां ज्ञानाम्जन शलाकया।
विभेमि' अर्थात् मैं ध्यानसे डरता हूँ तर महाराजने चतुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवेनमः॥
भाशीर्वाद दिया. कि'यानो भव अब वह ज्यान हो गया। समस्त संसारी प्राणी अज्ञानरूपी तिमिर (अंधकार) जब म्यान उस तपोवनके सब हरिण माद पशुओंको खा से व्यास है। ज्ञानरूपी अंजनकी शखाकासे जिन्होंने हमारे पुका तब एक दिन साधु महाराजके हो ऊपर मपटने लगा। नेत्रोंको खोल दिया है ऐसे श्री गुरुवरको नमस्कार है। साधु महाराजने पुनः पाशीर्वाद दे दिया कि 'पुनरपि मूषको
जो प्रास्माका साधन करता है, स्वरूप में मग्न हो कर्म- भव' अर्थात् फिरसे चहा हो जा। तात्पर्य यह कि हमारे मलको जन.नेकी चेष्टा करता है वह साधु है। समन्तभद्र पुण्योदयसे यह मानव पर्याय प्राप्त हो गई, उत्तम कुल स्वामीने बतलाया कि वही तपस्वी प्रशंसाके योग्य है और उत्तम धर्म भी मिल गया अब चाहिये पहया कि जो विषयाशासे रहित है, निराम्भी है अपरिग्रही है, कि किसी निर्जन स्थानमें जाकर अपना प्रात्मकल्याण करते, और ज्ञान-ध्यान-तपमें पासक हैं। वह स्व समय परन्तु यहां कुछ विचार नहीं है । तनिक संसारकी हवा मौर पर समयकी महत्तासे परिचित है। प्राचार्य कुन्द- लगी कि फिरसे विषय-वासनामोंको कीचबमें जा फंसे। कुन्दने स्वसमय और पर समयका स्वरूप इस प्रकार अब तो इन वासनामोंसे मनको मुक्त करके प्रात्महितकी बतलाया है :
मोर जगायो। 'गुणपर्ययवद्न्य म्' पास्माकी गुण जीवो चरित दंपण णाणितं हि ससमय जाण।
पर्यायको जानो स्याहाद द्वारा पदार्थोके स्वरूपको जान पुग्गल सम्मपदेसढियंच जाण परसमयम् ॥
लेना प्रत्येक प्राणि-मात्रका कर्तव्य है। जो प्रात्मा दर्शन, ज्ञान, तया चारित्रमें स्थित है वही संसारका सापेक्षव्यवहार 'स्व समय है और जो पुद्गक्षादि पर पदार्थो स्थित अब देखो, वक्तृत्व व्यवहार भी श्रोतृत्वकी अपेवास है उनको 'पर समय' कहते है । तथा 'पद्वारमाश्रितः होता है। हम वक्ता हैं माप सब श्रोतामों की अपेक्षासे इसी रखसमयो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणामाश्रितः परसमय तरह मोतापन भी वक्तापनेकी अपेक्षा व्यवहारमें जाता। इति । अर्थात् जो शुद्धामाके माश्रित है वह स्वसमय है इन्य अनंत धर्मारमक है। एक पदार्थ स्वसत्तासे प्रस्ति और और जो मिथ्यात्व रागादिविभावपरिणार्मोके माश्रित परसत्ताकी अपेक्षा मास्ति है। देखा जाय तो उस पदार्यने है उसे ही परसमय कहते हैं। परसमयसे हटकर अस्ति नास्ति दोनों धर्म उसी समय विद्यमान है। स्वसमयमें स्थिर होना चाहिये । परन्तु हम क्या कहें माप "स्थपरोपादानापोहनव्यवस्था मात्र हि बबु वस्तुनो लोगोंकी बात।
बस्तुरवं" बस्तुका वस्तुत्व भी यही है कि स्वल्पा मा एक साधुके पास एक चूहा था। एक दिन एक पिल्ली दान और परस्पका अपोहन हो। यह पतित पावन आई और वह चूहा डरकर साधु महाराजसे वोला-भग- शब्द है। पावन व्यवहार भी होगा जब कोई पतितके बन् ! 'मार्जाराद विभेमि' अर्यात मै बिस्सीसे बरवा। पतिवदीन होता पावन कौन कहलायेगा!