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अनेकान्त
किरण
फुटनोटोंमें उसके विषय के स्पष्टी करबकी सूचना भी दूसरे सिंह कविने अपनी रचना, भयवाड (सिरोही) दी गई। इस कारण टीका सरल और विद्याथियोंके में वहांके गुहिल वंशीय राजा मुलणके राज्यक बमें,' लिये सुगम होगई है-उसकी सहायतासे के प्रयके जो मालव नरेश बल्लालका मोडलिक सामन्त था और विषयको सहज ही समझ सकते है। यह संस्काय अपने जिसका राज्यकाल विक्रम संवत १२..के पास पास पिछले संस्करणों की अपेक्षा संशोधन दिके कारण खास पाया जाता है। अपनी विशेषता रखता है।
बास्नालकी मृत्युका उल्लेख अनेक प्रशस्तियों में प्रस्तावनामें प्राचार्य अमृतचन्द्रका परिचय देते हुए
मिलता है। बड़नगरसे प्राप्त कुमारपाल प्रशस्तिके १५ उन्हें विक्रमकी १२वीं शताब्दीका विद्वान सूचित किया
रखोकोंमें बल्लाल और कुमारपालकी विजयका उल्लेख गया है, जो ऐतिहानिक दृष्टिसे विचारणीय है ।
किया मया है और लिखा है कि कुमारपालने लालका जबकि पहावली में प्राचार्य अमृतचन्द्रको विक्रमकी 10वीं
मस्तक महलके द्वार पर लटका दिया था। चुकि शताब्दीका विद्वान बतलाया गया है। साथ ही, प्रेमीजीने
कुमारपालका राज्यकाल वि.सं. 1 से वि.सं. अन्य कति सम्बन्ध नरा प्रकाश डालते हुए, पशुण्ण
१२२६ तक पाया जाता है और इस बड़नगर प्रशस्तिका चरितके कर्ता सिंहकषिके गुरु मनधारी माधवचन्द्रके
काल मन् ॥ (वि.सं. १२०८) है । अंतः शिष्य भमि या अमृतचन्द्रको पुरुषार्थसिखयुपायके कर्ता
बरनाल की मृत्यु A. D. (वि० सं० २०८) होने की संभावना भी व्यक्त की है।
से पूर्व हुई है। परन्तु ऐतिहासिक रष्टिसे प्रेमीजीकी उक धारणा
___ कुमारपाल, यशोधवल. बल्लाल और चौहान राजा
पर्योराज ये सब राजा समकालान हैं । अतः प्रन्थअथवा कल्पना संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि प्रथम तो
प्रशस्तिगत कथनको दृष्टिमें रखते हुए यह प्रतीत होता अमृतचनका समय विक्रम संवत् १०१५ से बादका नहीं
है कि उक प्रद्युम्नचरित की रचना वि.सं. १२.८ से होमलता । कारण कि 'धर्मरत्नाकर' के कर्ता जयसेनने जो पाल बारसंघ विद्वान भावसेनके शिष्य थे। जयसनने
पूर्व हो चुकी थी।
अन्य प्रशस्तिमें उल्लिखित अमृतचन्द्र. माधवचन्द्र के अपना उमंग वि.संवत् १०१५ में बनाकर समाप्त किया
शिष्य थे जो 'मलधारी' उपाधिसे अलंकृत थे। भट्टारक है। उस प्रथमें प्राचार्य अमृतचन्नके पुरुषार्थसिद्धयुपाय के पच पाये जाते हैं। साथ ही, सोमदेवाचार्यके
अमृतचन्द्र तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शीलके यशस्तिलकचम्पूके भी... से उपर पद्य उद्धत हैं।
रत्नाकर (ममुद्र) थे। तर्क रूपी लहरोंसे जिन्होने परमतको
मंकोलित कर दिया था-डगमगा दिया था जो उत्तम अतः अमृतचन्द्रका समय वि० सं० १०५५ संवादका
व्याकरणरूप पदोंके प्रसारक थे । और जिनके ब्रह्मचर्य के नहीं हो सकता x।
तेजके पागे कामदेव दूरसे ही वंकित (खंडित) होनेकी अब रही, 'पशुपणचरितके कर्ता सिंहकविके गुरु
प्राशंकासे मानों छिप गया था-कामदेव उक्त मुनिके अमृतचन्द्र के साथ एकत्वका बात । सा दाना अमृतचन प्रचण्डजके अमृतचन्द्र भागे या नहीं सकता था। भिव्यक्ति है । पुरुषार्थसिद्धयुपायके कर्ताको पं०
अर्थात् मुनि पूर्ण ब्रह्मचारी थे। भाशाधर जीने 'उपकुरोप्याह' वाक्यके साथ उल्लेखित
प्राचार्य अमृतचंद्रके गुरुका अभी तक कोई नाम ज्ञात लिया जिससे वे ठाकुर-पत्रिय राजपूत ज्ञात होते हैं।
नहीं हुआ। वे अध्यात्मवादके अच्छे ज्ञाता और प्राचार्य जब कि 'पञ्चवक्षचरिउको प्रशस्तिमे ऐसी कोई बात
कुन्दकुन्दके प्रभृतत्रयके अच्छे मर्मज्ञ थे। न्यायशास्त्र
भी विद्वान थे। परन्तु वे प्रद्युम्न परितके कर्तासे बहुत देखो, अनेकान्त वर्ष - किरण में 'धर्मरत्नाकर पहले हो गए हैं। उनका समम विक्रमकी १.वी
और जयसेन नामके प्राचार्य नामका लेख। शताब्दीसे बाद नहीं हो सकता। x देखो भनेकान्त वर्ष ८ कि....11 में प्रकाशित
परमानन्द जैन शास्त्री 'महाकविसिंह और प्रयुम्नचरित' नामकाल
.देखो, सन् कीदनगर प्रशस्ति ।
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