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किरण ५]
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कुरलका महत्व और जैनकतृत्व
जैन शास्त्रों में नरकोंको 'विवर' अर्थात बितरूपमें पच उद्धणमेंमें देकर उसे पादरणीय जनग्रन्थ माना है। तथा मोष स्थानको स्वर्गलोकके ऊपर माना है। कुरनमें
२. नीलकेशी-यह तामिलभाषामें जनदर्शनका ऐसा ही वर्णन है; जैसाकि उसके पद्योंके निम्न अनुवादसे
प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र है। इसके जैन टीकाकार अपने प्रकट है
पक्षके समर्थन में अनेक उद्धरण बड़े भादरके साथ देते है, जीवनमें ही पूर्वसे कहे स्वयं अज्ञान। जैसे कि 'हम्माट्टू' अर्थात् हमारे पवित्र धर्मग्रन्थ कुरजमें भहो नरकका छविल, मेरा अगला स्थान ॥ कहा है। 'मेरा' मैं ? के भाव तो, स्वार्थ गर्वके थोक ।
३. प्रबोधचन्द्रोदय-यह तामिलभाषामें एक न टक जाता त्यागी है वहाँ, स्वगोपरि जो लोक ॥
है, जो कि सस्कृत प्रबोधचन्द्रोदयके माधार पर शंकाच र्यमामृतक एक पद्यम प०अाशाधाजान प्राचीन के एक शिष्य द्वारा लिखा गया है। इसमें प्रत्येक धर्मके जैन परम्परासे प्राप्त ऐसे चौदह गुणोंका उल्लेख किया है प्रतिनिधि अपने अपने धर्मग्रन्थका पाठ करते हुए रंगमंच जो गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने वाले नर-नारियोंमें परिलक्षित पर लाये गये है। जब एक निग्रंथ जैन मुन स्टेज पर होने चाहिये, वह पद्य इस प्रकार है
पाते हैं तब वह कुरलके उस विशिष्ट पद्यको पढ़ते हुए न्यायोपात्तधनो यजन गुणगुरुन सद्गस्त्रिवर्ग भजन, प्रविष्ट होते हैं जिनमें अहिंसा सिद्धान्तका गुणगान इस अन्योऽन्यानुगुणं तदहगृहिणी स्थानालयो ह्रीमयः। रूपमें किया गया है:युक्ताहारविहारआर्यसमितिःप्राक्षः कृतज्ञो वशी,
सुनते हैं बलिदानसे, मिलतीं कई विभूति । शृण्वन् धर्मावधि दयालु रघभीः सागरधर्म चरेत् ।। वे भव्योंकी दृष्टि में, तुच्छघृणा की मूर्ति ॥ हम देखते हैं कि इन चौदह गुणांको व्याख्याही सारा
यहाँ यह सूचित करना अनुचित नहीं है कि नाटिककुरल काव्य है।
कारकी दृष्टिमे कुरल विशेषतया जैमग्रन्थ था, अन्यथा वह ऐतिहासिक बाहरी साक्षी
इस पद्यको जैन संभ्यामीके मुखम नहीं कहलाता। १. शिलप्पदिकरम-यह एक तामिल भाषाका इस अन्तरंग और बहिरङ्ग साक्षीसे इस विषयमें अति सुन्दर प्राचीन जनकव्य है। इसकी रचना ईसाकी सन्दहक लिए प्रयः कोई स्थान नहीं रहना कि यह अन्य द्वितीय शताब्दीमे हुई थी । यह काव्य, काव्यकला- एक जैन कृति है । निःसन्देह इस नीतिके प्रन्यकी की दृष्टिस तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही तामिल जाति रचना महान् जैन विद्वान के द्वारा विक्रमकी प्रथम की समृद्धि, सामाजिक व्यवस्थाओं श्रादिके परिज्ञानके शताब्द के लगभग इस ध्येयको लेकर हुई है कि लिए भी बढा उपयोगी है; और प्रचलित भी पर्याप्त है अहिंसा सिद्धान्तका उसक सम्पूर्ण विवधरूपों में प्रतिपादन इसके रचयिता चेश्वशके लघु युवराज राजर्षि कहलाने किया जाये। लगे थे। इन्होंने अपन शिलप्पदिकरम्ने कुरलके अनेक
(अपूर्ण)
साहित्य परिचय और समालोचन
पुरुषाथमिद्धयपायटीका भूनकर्ता घाचार्य सम्पज्ञान औः सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रयके स्वरूपादिका अमृतचन्द्र टीकाकार, पं. गाथूरामजी प्रेमी, बम्बई विवेचन किया है इस प्रन्थपर एक प्रशाद कर्तृक प्रकाशक परमश्रत प्रभावक मण्डल जौहरी बाजार, बम्बई संस्कृत टीका जयपुरके शास्त्र भण्डारमैं पाई जाती है और नं.२ । पृष्ठ संख्या १२० । मूल्य दो रुपया। दो तीन हिन्दी टीकाएं भी हो चुकी है परन्तु प्रेमीजीने इस
प्रस्तुत ग्रन्थमें प्राचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थ सिद्धि के टीका को बालकोपयोगी बनानेका प्रयत्न किया है। टीकामें उपाय स्वरूप भावक धर्मका कथन करते हुए सम्यग्दर्शन अन्वयार्थ और भावार्य दिया गया है और यथास्थान