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अनेकान्त
[किरण
इस भाँति वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामन्या- पर विरुताको मामास नहीं होता किन्तु विरोध एकान्तपेचासे वस्तुमें अभेद और विशेषापेक्षासे उसमें भेद सिद्ध टिके अपनानेसे ही होता है। एकान्तता ही प्रसाधुता है होता है। सर्वेषां जीवनां समाः" अर्थात् सब जीव उससे भास्मा संसारका ही पात्र बना रहता है। समान में यह कहनेका तात्पर्य जीवस्वगुणकी अपेक्षासे है। जीव और पुद्गल के संसर्गसे यह संसारावस्था हुई है। पही जीवस्व सिद्धावस्थामें भी है और संसारीजीवीके जीव अपने विभावरूप परिणमन कर रागी-द्वेषी हुआ है संसारावस्था में भी है परन्तु जहाँ सब सिद्ध अनंतसुखके और पुद्गल, अपने विभावरूप और इस तरह इन दोनों पारी हैं वहाँ हम संसारी जीव तो नहीं हैं। हम दुःखी है। का बन्ध एक क्षेत्रावगाही हो गया है। इस अवस्थामें यह सब नय विभागका कथन है।
जब हम विचार करते हैं मालूम पड़ता है कि यह एकमाताको पाप जिस प्टिसे देखते हैं तो क्या प्रारमा बद्धस्पृष्ट भी है और अब स्पृष्ट भी । कर्मसम्बन्ध अपनी स्त्रीको मी उसी रष्टिसे देखेंगे और कदा की ष्टिसे विचार करते है तो यह बदस्पृष्ट भूतार्थ हे, चित् भाष मुनि हो जाये तो क्या फिर भी पाप उसी तरह इसमें सन्देह नहीं. और जब केवल स्वभावकी ष्टिसे देखते से कटारा करेंगे महाराज हैं (प्राचार्य सूर्यसागर जी है तो यह अभूतार्थ भी है। सरोवरमें कमलिनीका जिसको की ओर संकेत कर) किसी गृास्थी के यहाँ जब ये पर्या- जलस्पर्श हो गया है इस दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह के निमित्त जाते हैं तो श्रावक किस बुद्धिसे इन्हें माहार पत्र जनमें लिप्त है यह भूतार्थ है परन्तु जलस्पर्श छू नहीं दान देता है। और वहा श्रावक किसी दुल्लक ( एकादश मकता है जिसको ऐसे कमलिनीके पत्रको स्वभावकी दृष्टिसे प्रतिमा-पारी भावक) को किम बुद्धिसे देता है और अवलोकन करते हैं तो यह प्रभूतार्थ है क्योंकि वह जलसे कदाचित-वह श्रावक किसी कालको आहार देवे तो अलिप्त है। अतः अनेकांतको अपनाए बिना वस्तु-स्वरूपबह किस खिसे देगा। मुनिका वह श्रावक पूज्य बुद्धिसे को समझना दुश्वार है। नानापेक्षासे प्रात्म-ज्ञान करना माहारदानदेयेगा और उसकालेको बह करुणाखिसे, या बदी बात है 'समावितन्त्र' में श्रीपूज्यपादस्वामी काला यदि उससे यह कहे कि मैं इस तरहसे थाहार नहीं लिखते हैंलेता । मै तो उसी तरह नवधा भक्तिपूर्वक लूगा, जिस
यन्मया दश्यते रूपं तन्न जानाति मर्वथा । - तरह तुमने मुनिको निया है तो अब हम आपसे पूछते है जानम्न दृश्यत रूप ततः केन अवाभ्यम्।। क्या हम उसी तरह पाहार दे देवेंगे? नहीं। उससे यहीं
अर्थात् इन्द्रियांके द्वारा जो यह शरीरादिक पदार्थ करेंगे कि भाई! अगर तू भी-मुनि बन जाय भोर दिखाई देते हैं वह अचेतन होनेसे जानते नहीं है । और जो पथ शोधर चलने लगे तो तुझे भी दे सकते हैं। पदार्थोको जानने वाला चैतन्यरूप प्रारमा है वह इन्द्रियोंके,
तिजकने गीता-रहस्य" में लिखा है कि 'गौ-वाक्षण- द्वारा दिखाई नहीं देता, इसलिए मैं किसके साथ बात की रक्षा करनी चाहिये। गौ और ब्राह्मण दोनों जीव हैं करूं । यह पण्डितजी हैं, इनसे हम बात करते हैं तो तोक्या इसका मतलब यह हुआ कि गौका चारा ब्राह्मणको जिसमे हम बात कर रहे हैं वह तो दिखना नहीं है और
देखें और ब्राह्मणका हलुमा गायको डाल देवेंद्रन्यका जिससे हम बात कर रहे हैं वह अचेतन होनेसे समझता सदेव अपेक्षासे कथन किया जाता है। कोई वस्तु किस नहीं है। इसलिए सब झंझटोंसे छूटकार विभावभावोंका प्रपेचासे कही गई है यह हम सममलेवें तो संसारमें कभी परित्यागन कर स्वभाव में स्थिर रहनेका यह क्या ही उत्तम विसंवाद ही पैदा न हो।
उपाय है। वही स्वामीजी भागे लिखते हैंयह बदका किसका है। क्या यह अकेली स्त्री का ही यत्परः प्रतिपायोऽहं यत्परान् प्रतिपादये।
नहीं तो क्या केवल पुरुष का है नहीं! दोनों (म्बी उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदह निर्विकल्पकः ।। पक्ष) के सयोगावस्थासे बड़का उत्पन्न हुमा है। जिस । जो प्रतिपादन करता है वह तो प्रतिपादक कहलाता है वरह यह सब कथन सापेक्ष है उसी तरह साधुता और और जिसको प्रतिपादन करना चाहते हैं वह प्रतिपाय कहप्रसाधुताका कथन भी सापेक्ष है। क्योंकि वस्तुका स्वभाव लाता है। वो कहते है कि यह सब मोही मनुष्योंकी अनन्त धर्मात्मक है उनका सापेपरष्टिसे व्यवहार करने पागलों जैसी चेष्टा है। यदि ऐसा ही है तो हम इन्हींस