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________________ किरण ५] महत्वपूण प्रवचन [ १७५ पढ़ते-महाराज! फिर पाप ही यह उपदेश, रचना रागद्वेषादिमय बतलाते हैं किन्तु ये तो पुद्गलके सम्बन्धसे चातुरी भादि कार्य क्यों करते है तो इससे मालुम परता उत्पन विभावमाव है। भवःजो जो भाव परके सम्बन्धसे है कि मोहके सद्भावमें सब व्यवहार खलते है यह असत्य होंगे वे कदापि जीवके नहीं कहलाये जा सकते क्योंकि यहाँ नहीं, सत्य है। तो जीवके शुख स्वरूपको बतलानान । माथे पर तेल यह लोक पद्धव्यत्मक है जिसमें सब दम्य परस्पर पोतलो तो वह चिकनाई तेलको ही कहलाई जायेगी। मिले हुए एक दूसरे का चुम्बन करते रहते हैं। इतना होने इसी तरह समस्त राग-द्वेष मोहाविककी कल्लोलमालाएँ पर भी सब अपने अपने स्वरूप में समय है। कोई द्रव्य पुद्गल प्रकृतियों से उत्पन हुए विभाव भाव हैं। इससे यह किसी द्रव्यसे मिलता जुलता नहीं है पर फिर भी एक सिद्ध हुआ कि वह (जीव) चित्स्वरूप चिक्तिमात्र धारण पर्यायसे दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है और संसारका व्यव. करता हुमा शुद्ध टंकोत्कीर्ण एक विज्ञानघनस्वभाव प.ला है हार चलता रहता है। सब प्राणियों में एक समान पाई जाने वाली चीज है। यहाँ जैनधर्ममें त्यागका क्रम किसी का भेद-भाव नहीं है। वस्तुस्थितिका ज्ञान सबके लिये परमावश्यक है। जैनधर्ममें सहव क्रम-प्रमसे ही कथन किया गया है। सोही थी। वहाँ दो अच्छे धना-मना पहले उपदेश दिया जाता है कि अशुभोपयोगको छोरो और शुभोपयोगमे वर्तन करो और जो प्राणी शुभोपयोगमें आदमी पास-पास अगल-बगल में बैठे हुए थे और बीच में एक साधारण स्थितिका मनुष्य मा बैठा था अब वह परो स्थिर है उससे कहते हैं, भाई यह भाव भी संपार बंधन सने वाला व्यक्ति इधर-उधर पूदियोंको दिखाकर उन सेठीमें डालने वाला है। अतएव इसको भी त्यागकर शुद्धो से बोला-देखो! क्या बढ़िया पूड़ी है। बड़ी कोमल और पयोगमें वर्तन कर । कुन्दकुन्दाचार्य एक जगह कहते हैं कि मुलायम है। एक तो पापको अवश्य खेनी चाहिये। परंतु प्रतिक्रमण भी विष है। अतः जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष उस बीचवाले मनुष्यसे कुछ कहा। भनिन्छासे वह रूप कह दिया वहाँ अप्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण नहीं करनेको - अमृतरूप केसे कहा जा सकता है। शुद्धोपयोग प्राप्त कहता भी तो तुरन्त ही वहाँसे हटकर उनको फिर दिखाने करना प्राणी मानाका ध्येय होना चाहिये । यह अवस्था लगता । वह मनुष्य देखता ही रह जाता इस तरह दो जब तक प्राप्त नहीं हुई तब तक शुभोपयांगमें प्रवर्तन बार हुना, तीन बार हुमा। जब चौथी बार पाया तो उसने उठकर एक चाँटा रसीव किया और बोला-बेवकूफ, करना उत्तम है। अतएव कम क्रममे चढ़नेका उपदंश है। सोनोपजोधार बार इनको दिखाकर परोसता तात्पर्य यही है कि यदि मनुष्य अपने भावों पर दृष्टिपात योडीको आताक्या मैं यहाँ खाने नहीं करे तो संसार बन्धनसे छुटना कोई बड़ी बात नहीं है। ।। माया मुझे क्यों नहीं परोसता इतना जब उससे कहा एक बार भी यह प्राणी अपनो अज्ञानताको मेट नवे तो उसकी अक्ल ठिकाने पर आई। तो कहनेका वह परम सुखी हो सकता है।- प्रज्ञान क्या है? ज्ञाना- पायही कि वह वस्तु-स्वरूप सबका है। अपने वरणी कर्मके योपशममें जहाँ मिथ्यात्व लगा हुया है सपना बोध सबको हो सकता है उसमें किसी वही अज्ञान है। उस प्रज्ञ नका शरीर मोहमं पुष्ट होना प्रकारका भेद-भाव नहीं है। है। और उसके प्रसादमे ही यह विचित्र लीला देखने में अब यहाँ जीव और अजीवका मेद दिखताते हैं 1परपा रही हैं। अतः प्रारम-ज्ञानकी बड़ी मावश्यकता है। को ही प्रात्मा मानने वाले कोई मूढ कहते है 'मध्यवसान जिमने प्राप्त कर लिया वही मनुष्य धन्य है और उसीका ही जीव है।' अन्य कोई नो कर्मको जीप मानते हैं। कोई जीवन सार्थक एवं सफल है। कहते है कि साता और अमाताके उदयसे जो सुख दुख जीव और अजीवका भेद-विज्ञान होता है वह जीव है। कोईका मत है कि जो संसारमें ___ यह जीवाजीवाधिकार है। इस अधिकार में जीव और भ्रमण करता है उसके अतिरिक और कोई जीव नहीं है। मजीव दोनांके अलग अलग लक्षणों को कहकर जीवके शुद्ध- कोई कहते हैं कि पाठ काठीकी जैसे खाट होती इसके स्वरूपको दिखाना कर्ताको अभीष्ट है। कोई जीवको केवल अलावा और खाट कोई चीज नहीं है उसी तेरामा
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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