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अनेकान्त
[किरण
काँका संयोग ही जीव और जीव कोई जीव तिस पर भी यह अत्यंत बढ़ा हुमा महामोह मज्ञानियोंको नहीं है। इस प्रकारके तथा अन्य प्रकारके बससे व्यर्थ ही अनेक प्रकारसे नाच नचाता हुमा उन्हें यजामामत जीवको मान्यता विषयमें है परन्तु इनमेंसे नुभूविसे वंचित रखता है। भाचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! कोई भी मत सत्य नहीं है। सब भ्रममें हैं क्योंकि दूव्यर्थ कोलाहलासे विरक्त होकर चैतन्यमान वस्तुको देख, ये सब जीव नहीं है। जो अभ्यवसानादि भावोंको दय-सरोवरमें निरंतर विहार करनेवाला ऐसा वह भगही जीव बनाते है उनके प्रांताचार्षकहते हैं कि सभी वान् मारमा उसका यदि षण्मास पर्यंत भी अनुभव करे भाव पौद्गलिक हैं। ये कदापि स्वभावमय जीव द्रव्य नहीं तो मुझे पारम-तस्वकी अवश्य उपलब्धि हुए बिना न रहे। हो सकते,इन रागादि भावोको जो जीव भागममें बतलाया सुखके लिए तू अनन्तकालसे निरन्तर भटक रहा है पर है वह व्यवहारनयसे है किन्तु वे वस्तुतः जीव नहीं है। सच्चा वास्तविक) सुख तुझे अभी तक प्राप्त नहीं था। इसी प्रकार जो यह प्रलाप करते हैं किसाता और असमतासे इसका कारण क्या है? यह खोजनेका प्रयास भी नहीं किया। उत्पन्न सुख दुःखादि हैं वह जीव है उनको कहते है, काम कैसे बने किसीने कहा मरे, वेरा कान कौमा लेगया भाई ! सुख दुखादिका जिसको अनुभव होता है वह जीव किंतु मूरखने अपना हाथ उठाकर काम पर नहीं देखा। . है। जो संसारमें भ्रमण करता है वह जीव हैं ऐसी जिसकी कान कहाँ चला गया। इसी तरह कोई यह कहे कि हमारे मान्यता है उनके लिए कहते हैं कि इस भ्रमणके अतिरिक्त तो पीठ ही नहीं है परन्तु तनिक हाथ पीछे मोड़कर देखा जो सदा शाबता रहने वाला है वह जीव है। जैसे पाठ होता। कहीं नहीं गई है। अपने ही पास है। केवल उस काठीके संबोगसे जो खाट कहलाती है वैसे कि पाठ कौके तरफ लक्ष्य करने की भावश्यकता है। संयोगसे उत्पन्न जीव नहीं है किन्तु जिस प्रकार पाठ- प्रात्माका प्रशान्त स्वभाव काठीसे बनी हुई खाट उस पर शयन करनेवाला व्यक्ति एक 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक है--उसमें लिखा है, भैया जिन उसी तरह पाठकोंके अतिरिक्त जो कई वस्तु एक सभाभवन में नट और नटी पाये। नटने नटीसे कहा कि है वह जीव है।
आज इन श्रोताश्रीको कोई एक अपूर्व नाटक सुनायो। जब यह सिद्ध हो चुका कि वोदिक या रागादिक अपूर्व ऐसा जो कभी उन्होंने सना नहीनटी बोली प्रार्थ! भाव जीव नहीं है तब सहज ही यह प्रश्न होता है कि ये संसारी प्राणी रात्रि-दिवस विषयों में लीन परिग्रहोकी जीव कौन है? ऐसा प्रश्न होने पर प्राचार्य कहते है--
चिताम्मे भाराम.त तथा चाहकी दाहसे दग्ध इनको ऐसी अनाथनंतमचलं स्वसवेद्यमिदं स्फुटम् । अवस्थामें सुख कहाँ ? तब नर कहने लगा प्रिये। ऐसी जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैक चकायते ॥
बात नहीं है। 'मामास्वभावोऽस्तु शांत: केनापि कर्ममता बहजीव बानायत है और स्वसंवेथ है केवल अपने
कलकारयोन प्रांतो जाता' अर्थात् आत्मा स्वभावसे से ही अपने द्वारा जानने योग्य है। जिसमें चैत यका शान्त किन्तु किन्हीं कर्ममन कलङ्ककारयोंसे बह प्रशांत बिबासाहो रहा ऐसा स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन रूप हो जाता है। बताइन उपद्रवोंको हटाकर शांत बनजामो जीव है जो स्वयं प्रकाशमय बोधरूप है।
क्योंकि शांतता (सुख) उमक सहज स्वभाव है। प्रत्येक अतः जीवमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं है। शरीर म्य अपने स्वभावमें रहकर ही शोभा पाता है। किंतु हम 'सं थान' संहनन भादि भी नहीं है। राग,ष, मोह, एवं लोगोंकी प्रवृत्ति होबाझ विषयों में लीन हो रही है। उन्हीं कर्म मोकर्म भाव भी नहीं है।
सुखकी प्राप्तिमें सारी शक्ति नगा रहे है।क्या हममें सहा योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान ही है और न सुख है। यही मोहकी महिमा है। पर वस्तुओं में सुखकी माययाण, स्थितिबन्धास्थान, संक्लेशस्थान ही क्योकि कल्पनाका मृगतृष्णासे अपनी पिपासा शांत करना चाहते ये सभी पुगनित क्रियाएँ हैं अतः वे कदापि जीवके हैं। सचमुचमें देखा जाय तो सुख प्रात्माकी एक निर्मच नहीं होगा।
पर्याय है। वह कहीं परमेंसे नहीं पाती, क्योंकि ऐसा इस प्रकार यह जीव और अजीवका भेद सर्वमा भित्र सिद्धांत है कि जिसकी जो बीज होती है वह उसीके पास इनकोशानीज स्वयं स्पष्टतया अनुभव करते है किन्तु रहती है। (फिरोजाबाद मेले में किया गया एक प्रवचन)
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