________________
२१२]
अनेकान्त
[किरण ६ -- - जो जीव स्वोन्मुख होकर अपने ज्ञायक परमात्मततको समावेश शुद्ध प्रात्माके अनुभव हो जाता है, इसलिये न सममे उस जीवने जैनधर्म प्राप्त नहीं किया है और शुद्ध प्रारमाकी अनुभूति वह समस्त जिनशासनकी जिसने अपने शायक परमात्मतत्त्रको जाना है वह समस्त अनुभूति है।
नशासनके रहस्यको प्राप्त कर चुका है। अपने शुद्ध . अहो ! इस एक गाथामें श्रीकुवाचार्यदेवने शायक परमात्मतत्त्वकी अनुभूति वह निश्चयसे समग्र जैनदर्शनका अलौकिक रहस्य भर दिवा है; औनशासन जिनशासनकी अनुभूति है। कोई जीव भले ही जैनधर्म का मर्म क्या है-वह इस गाथामें बतलाया है। में कथित नवतत्वोंको व्यवहारसे मानता हो, भले ही
आत्मा ज्ञामधनस्वभाषी है। वह कम्के सम्बन्धसे ग्यारह अंगोंका ज्ञाता हो और भले ही जैनधर्ममें रहित है । ऐसे प्रारमस्वभावको दृष्टि में न लेकर कर्मक कथित व्रतादिकी क्रिया करता हो; परन्तु यदि वह अंत- सम्बन्धवाली एष्टिसे भास्माको लस में खेना सो रागवृद्धि रंगमें परदन्य और परभावोंसे रहित शुद्ध प्रास्माको
है, उसमें रागकी-प्रशुद्धताकी उत्पत्ति होती है इसलिये म जानता हो ना बह जैनशासनसे बाहर है, उसने वह जनशासन नहीं है। भले ही शुभ विकल्प हो और वास्तवमें जैन-शासनको नहीं जाना है।
पुण्य बँधे, परन्तु वह जैनशासन नहीं है। प्रात्माको . ___ 'भावप्रासत में शिष्य पूछना है कि-जिनधर्मको उत्तम असयोगी शुद्ध ज्ञानघनस्वभावरूपसे दृष्टिमें लेना सो कहा, तो उस धर्मका स्वरूप क्या है। उसके उत्तरमें
वीतरागष्टि है और उस ष्टि में वीतरागताकी ही उत्पत्ति प्राचार्यदेव धर्मका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि:
होती है इसलिये वही जैनशासन है। जिससे रागकी
उत्पत्ति हो और संसार परिभमण हो वह जैनशासन नहीं पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं ।
हैं, परन्तु जिसके अवलम्बनसे वीतरागताकी उत्पत्ति हो मोहमखोहविहीणी परिणामी पप्पणो धम्मो ॥३॥
और भवभ्रमण मिटे वह जैनशापन है। जिनशासनके सम्बन्धमें जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा
भास्माकी वर्तमान पर्वायमें अशुद्धता तथा कर्मका है कि-पूजादिकमें तथा जो व्रतसहित हो उसमें तो
सम्बन्ध है; परन्तु उसके त्रिकाली सहजस्वभावमें अशुपुण्य है और मोह-पोम रहित आत्माके परिणाम
द्वता या कर्मका सम्बन्ध नहीं है. निकाली सहज-स्वभाव तो वह धर्म है।
एकरूप विज्ञानघन है। इस प्रकार प्रात्माके दोनों पक्षोंको कोई-कोई लौकिकजन तथा अन्यमती कहते है कि
जानकर, त्रिकाली स्वभावकी महिमाकी ओर उन्मुख पजादिक तथा व्रत-क्रियासहित हो वह जैनधर्म है: होकर प्रास्माका शवरूपसे अनभव काना , परन्तु ऐसा नहीं है। देखो, जो जीव-व्रत-पूजादिके अमरागको धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिकजन' और प्रास्माकी अनुभूति ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हैं। 'अन्यमती' कहा है । जनमतमें निमेश्वर भगवानने में विकारी और कर्मक सम्बन्धवाला हूँ -इस प्रकार बत-पूजादिक शभभावको धर्म नहीं कहा है, परन्तु पर्यायष्टिसे लक्षमें लेना वह तो रागकी उत्पत्तिका कारण मात्माके वीतरागभावको ही धर्म कहा है। वह वीतराग- है और यदि उसके प्राश्रयसे लाभ माने तो मिथ्यात्वकी भाव कैसे होता1-शुद्ध प्रात्मस्वभावके अवलम्बन उत्पत्ति होती है। इसलिये प्रात्माको कर्मके सम्बन्धवाला से ही वीतरागभाव होता है; इसलिये जो जीव शुद्ध और विकारी देखना वह जैनशासन नहीं है। दूसरे प्रकार मात्माको देखता है वही जिनशासनको देखता है। से कहा जाये तो पास्माको पर्यायबुद्धिसे ही देखनेवाला सम्यग्दर्शनशान-चारित्र भी शुद्ध पारमाके अवलम्बनमे ही जीव मिथ्याष्टि है। पर्यायमें विकार होने पर भी उसे प्रगट होते है, इसलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-परिवरूप मोक्ष- महत्व न देकर द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना मार्गका समावेश भी शद पारमाके सेवनमें हो जाता वह सम्यग्दर्शन और जैनशासन है। अन्तरमें ज्ञानरूप है और शुद्ध पात्माके अनुभव जो वीतरागभाव मावश्रत और बाझमें भगवानकी वाणीरूप ग्यश्रतप्रगट हुमा उसमें अहिंसाधर्म भी भा गया तथा उत्तम उन सबका सार यह है कि ज्ञानको अन्तरस्वभावीन्मुख अनादि दस प्रहारके धर्म भी उसमें ना गये। इसप्रकार करके आत्माकी शेख अवहम्पृष्ट देखना चाहिए। जो जिन-जिन प्रकारों जैनधर्मका कथन ई उन सर्व प्रकारोंका ऐसे पारमाको देखे उसीने जैनशासनको जाना है और