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किरण 1
जिनशासन
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वह सर्वाश में ठीक नहीं, क्योंकि उक्त गाथामें है। किस रष्टिसे या किम साधनोंसे देखता है, और भारमाश्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने ऐसा कहीं भी नहीं कहा कि जो शुद्ध के इन विशेषणोंका जिनशासनको पूर्ण रूपमें देखने के साथ मात्मा वह जिनशासन है' और न 'इसलिये' अर्थका क्या सम्बन्ध है और वह किस रीति-नीतसे कार्य में परिणत वाचक कोई शब्द ही गावामें प्रयुक्त हुधा है। यह सब किया जाता है यह सब उसमें कुछ बतलाया नहीं। इन्हीं स्वामीजीकी निजी कल्पना है। गाथामें जो कुछ कहा सब बातोंको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत थी और गया है उसका फालतार्य इतना ही है कि 'जो आत्माको इन्हीसे पहली शंकाका सम्बन्ध था, जिन्हें न तो स्पर अबदस्मृष्टादि विशेषणोंके रूप में देखता है वह समस्त किया गया है और न शंकाका कोई दूसरा समाधान ही जिनशासनको भी देखता है। परन्तु कैसे देखता है। प्रस्तुत किया गया है-दूसरी बहुत सी फालतू बातोंगे यद्धारमा होकर देखता है या अशुद्धामा रह कर देखता प्रश्रय देकर प्रवचनको खम्बा किया गया। क्रमशः
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....न....शा....स जिनशासनको कब यथार्थ जाना कहा जाता है ?
[श्री कानजीस्वामी सोनगढ़का वह प्रवचन लेख जो आत्मधर्मके गत भाश्विन मास अङ्क ७ के शुरूमें प्रकाशित हुआ है, जिस पर 'अनेकान्त' की इसी किरणक शुरूमें विचार किया गया है।)
शुद्ध पारमा वह जिनशासन है; इसलिये जो जीव जिनशासनसे बाहर है। जो जीव मामाको कर्मके सम्ब अपने शुद्ध आत्माको देखता है वह समस्त जिनशासन- न्धयुक्त ही देखता है उसके वीतरागभावरूप जैनधर्म को देखता है। यह बात श्री भावार्यदेव समयसमरकी नहीं होता । अन्तरम्वभावकी रष्टि करके जो अपने पन्द्रहवीं गाथामें कहते हैं:
मात्माको शवरूप जानता है उसीके वीतरागभाव प्रकट यः पश्यति श्रास्मानं, अबदस्पृष्टमनन्यमविशेषम् । होता है और वही जैनधर्म । इमखिये प्राचार्यदेव कहते है अपदेशसान्तमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥१॥ कि जो जीव अपने मात्माको कर्मक सम्बन्धरहित एकाकार
इस गाथामें प्राचार्यदेवने जैनदर्शनका मर्म खोलकर विज्ञानधर्म स्वभावरूप देखता है वह समस्त जैनशासनको रक्खा है। जो इन प्रबद्धस्पष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष देखता है । मोर प्रसंयुक-ऐसे पाँच भावोंकप पास्माकी अनुभूति देखो यह जैन शासन ! खोग बाझमें जैनशासन मान है वह निश्चयसे समस्त जियशासनको अनुभूति है। है है परन्तु जैनशासन तो मारमाके शुद्धस्वभावमें जिसने ऐसे शुद्ध पारमाको जाना उसने समस्त जिनशासन है। कई लोगों को ऐसी भ्रमणा है कि जैनधर्म तो कमको जान लिया । समस्त जिनशासनका सार क्या ! प्रधान धर्म है। लेकिन यहाँ तो प्राचार्यदेव स्पष्ट कहते हैं -अपने घर पास्माका अनुभव करना। शुद्ध प्रास्माके कि मात्माको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तवमें अनभवसे वीतरागता होती है और वही जैन धर्म है जैनशासन नहीं है परन्तु कर्म के सम्बन्धसे रहित राख जिससे रागकी उत्पत्ति हो वह जनधर्म नहीं है। 'मैं देखना वह नशासन है। जैनशासन कर्मप्रधान वो बंधनवाना अशुद्ध हुँ'-इस प्रकार जो पर्यायष्टिसे नहीं है, परन्तु कर्मके निमित्तसे जीवकी पर्वायमें जो अपने भात्माको प्रशुद्ध ही देखता है उसके रागकी पुण्यपापरूप विकार होता है उस विकारको प्रधानता भी उत्पत्ति होती है और राग है वह जैनशासन नहीं है, जैनशासनमें नहीं है। जैनधर्म में तो प्रब-हायक पवित्र इसखिये जो अपने पास्माको अशुद्धरूपही देखता है परन्तु आत्मस्वभावकी ही प्रधानता है; उसकी प्रधानतामें ही राख मामाको नहीं देखता उसे जिनशासनकी खबर नहीं वीतरागता होती है। विकारकी पा परकी प्रधानतामें है। भारभाका कर्मके सम्बन्धयुक्त ही देखने वाला जीव नहीं होती इसलिये उसकी प्रधानता पर जैनधर्म नहीं है।