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सुन सककी प्राति करा पासी समयोंके शासनका बाकि कोई भी सम्मान ऐसा नहीं जो नियम यद्ध निवारक (सर्वथा एकान्तवादका मामब बेकर शासनस जातीच हो-अपने ही परके साथ प्रतिबद हो । जैसा बने हुए सब मियादर्शनोंके गर्वको चूर पर भनेकी कि खिडसेनाचार्य के निम्न बावचसे प्रकट शक्तिले सम्पा)।
. दम्वहिश्रोतिसम्हाणात्मिणभो शियम युद्ध जातीयो। स्वामी समन्तभद्र, शिवसेक और मकरसंकदेव जैसे ण य पज्जबहिनो णाम कोई भयण विसेसो Holl महान् चाचायक उपयुक्त वादोंसे जिनशासनकी विशे- जोमय अपने ही पक्षके साथ प्रतिबर दो बह स्वामों का उसके सविशेषरूपका ही पता नहीं चलता
सम्यानय न होकर मिथ्यामय है. प्राचार्य सिद्धसेनने किस शासनका बहुत कुछ मूलस्वरूप मूर्तिमान
से दुनिक्षिप्त एव (अपरिशुद्धनय) बतलाया है होकर सामने या जाता है। परन्तु इस स्वरूप कानमें
और लिखा है कि वह स्व पर दोनों पक्षोंका विधायक कहीं भी शुहारमाको जिनशासन नहीं बनाया गया, बहन देखकर यदि कोई सम्जन उक्त महान् बाचाबों, जो
रहा पांचवां 'भसंयुक्त विशेषया, वह भी जिनशासन कि जिनशासपो स्तम्मस्वरूप माने जाते हैं, 'बौकिकजन'
के साथ लागू नहीं होता, क्योंकि जो शासन अनेक प्रकारके या'मण्यमनी' कहने मे और यह भी कहने लगे कि
कि विशेषोंसे युक्त है.अभेद भेदात्मक अर्थतत्वोंकी विविध
- 'उदोंने जिनशासनको जाना या समझा तक नहीं तो
पनीसे संगठित है, और अंगों मादिके अनेक सम्बन्धोंको विपाक से क्या कहेंगे, किन मन्दोंसे पुकारेंगे और
अपने साथ जोदे हुए है उसे सर्वथा प्रसंयुककैसे कहा जा उसके शावकी कितनी सराहना करेंगे यह मैं नहीं जानता,
सकता है नहीं कहा जा सकता। विज्ञपाठक इस विषयके स्वतन्त्र अधिकारी हैं और इस
इस तरह शुदामा और जिनशासनको एक बतलानेसे लिये इसका निर्णय मैं उन्हीं मकोड़ता। हाँ तो मुझे
सुदामा पाँच विशेषण जिनशासनको प्राप्त होते है जिवासन सम्बन्धी इन उस्लेखों द्वारा सिर्फ इतना ही
उसके साथ संगत नहीं बैठते । इसके सिवा शुद्धात्मा केवलबनाना पा दिखबाना इष्ट है कि सर्वथा 'विशेष'
ज्ञानस्वरूप है, जब कि जिनशासनके इम्यश्रत और भावविषय इसके साथ संगत नहीं हो सकता। और
श्रुत ऐसे दो मुख्य भेद किये जाते है, जिसमें भावात उसीके साथ क्या किसीके मी साय वह पूर्णरूपेव संमत नहीं
श्रतज्ञानके सपमें है, जिसका केवलज्ञानके साथ और नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा कोई भी वन्य, पदार्थ या वस्तु
वो प्रत्वा परोक्षका भेद तो है ही। रहा द्रव्यश्चत, वह विशेष नहीं है जो किसी भी अवस्थामें पर्वाय भेद विकल्प
सम्पात्मक होबा भयरात्मक दोनों ही अवस्थानों में अब या पुषको लिये हुए न हो। इन अवस्थावया पर्यायादिका
रूप है-ज्ञानरूप नहीं। चुनाचे श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी नाम ही 'विशेष' है और इसलिये जो इन विशेषोंसे
सत्यं णाणं ण हवह जम्हा सत्थं ण जाए किचि। सर्वथा शून्य है वह प्रवस्त है। पर्याय बिना सम्म और
तम्हा भए ‘णाणं अएण सत्यं जिगाविति ।' इत्यादि इपके बिना पर्याय होते ही नहीं, दोनोंमें परस्पर विना
मायामों में ऐसा ही प्रतिपादन किया है और शास्त्र तथा भाव सम्बन्ध है। इस सिद्धान्तको स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने
शम्बको हानसे भिड बनाया है। ऐसी हालत में रायामी अपने पंचास्तिकाय प्रन्यकी निम्न गाथामें स्वीकार
स्माके साथ ब्रम्बचतका एकत्व स्थापित नहीं किया जा किया है और इसे प्रमोंका सिद्धान्त बनाया है। सकता और यह भी शुद्धामा तथा जिनशासनको एक पज्जव विजुदं दवदन्यविजुत्ताय पस्यवाणत्थि। बनाने में बाधक दोण्ह भरणभूदं भावं समय पहविति ॥ १२॥ अब मैं इतमा और पतबा देना चाहता कि स्वामी
ऐसी हाव रामा भी सम-सिद्धान्तसे जीके प्रवचन लेखममा परेग्राफमें जो यह लिखा है किपवित्र नहीं हो सकता, उसे जो विशेष कहा गया है "द मारमा जिवासन है इसलिये जो जीव हसि चिको बिबे हुए इसे सगाईमें स्तर परमेशवमात्माको देखता है वह समस्त जिनशासनको परमाणीव है। मानबह कह देने काम देता है। यह बात भी बाचार्षदेव समयसारकी की बालिखनपळी दिसे पैसा कहा गया है, पहली माया को है।"