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________________ समयसारकी १५वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी [२॥ बवादियस्म सम्वं सवा अगुवयश्चमविपद से ही यह भी प्रतिपादन किया है कि जिनका स्वाद बच्वं-पज्जव विडय दन्व-विजुत्ता चपज्जवा बस्थि । शब्द पुरस्सर कथनको खिये ये जो स्याहावी-बोकाप्याय-द्वि-भंगा होदि पवियबसणं एवं 10 लास्मक प्रवचन (शासन) है-पत्र (प्रत्यार) और १५ पुष संगहयो पविक्कमलाल दुवेयर पिइ ए (भागमादिक) का अविरोधक होनेसे अमवय (निदोष) बम्हा मिच्छविट्ठी पत्तेयं दो वि मूलया है, जबकि दूसरा 'स्या शब्दपूर्वक कथनसे रहिसको इन गाथानों में बताया कि पर्यावानियकी सर्वथा एकान्तवाद है यह निदोष प्रवचन (शासन) नहीं रधिमें प्याथिकनयका पकव्य (सामान्य) नियमसे है, क्योंकि त्ट और इष्ट दोनोंक बोधको विष अवस्तासी याचिंकनयी भि (१२८) भकर्षकदेवने वो स्याद्वादको विषयासका पकम्य विशेष अवसरोपर्यायाति प्रमोघलपय बतलाया है जैसाकि उनके निम्न सुप्रसिद सब पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते है और नाशको प्राप्त होते हैं। वापस दम्यार्थिकमयकी रप्टिमें कोई पदार्थ कमी उत्पन होता। श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोधनांछनम्। है और मनाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्यायके (पाव त्रीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। व्ययके बिना और पर्याय द्वग्यके (धौम्यके) बिना नहीं स्वामी समन्तभाने अपने 'पुस्त्यनुशासन में श्रीषीरहोते; क्योंकि उत्पादण्यय और धौम्य में तीनों व्य-सतका जिनके शासनको एकाधिपतित्वरूप बग्मीका स्वामी हो अविवीय बरण है। (उत्पादादि) वीनों एक दूसरेके की शकिसे सम्पत्र बताते हुए, जिन विशेषोंकी विशिरता साथ मिलकर ही रहते है, अलग अवग रूपमें एक से अद्वितीय प्रतिपादित किया निम्न कारिकासे मजे दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुए-मिबारष्टि है। अर्थात प्रकार जाने जाते हैंदोनों मयों में से जब कोई भीनय एक सरेकी अपेक्षा न दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठ नय-प्रमाण-प्रक्रतासार्य। रखता हुभा अपने ही विषयको सत् रूप प्रतिपादन करने- अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादर्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् । का पात्रहरता है तब वह अपने द्वारा प्राधवम्तके एक इसमें बताया है कि वीरजिनका शासन पवा, पम, अंशमें पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब त्याग और समाधिकी निहा-सत्परताको लिये हुए है,गयों वह अपने प्रतिपक्षीनयकी अपेक्षा रखता हा प्रवर्तता- क्या प्रमाणोंके द्वारा वस्तुतस्वको विष्कुन स्पष्ट (सुनिखित) उसके विषयका निरसन न करता हमा तटस्थ रूपसे करने वाला है और अनेकान्तवादसे मिन्न सरे समी अपने विषय (वक्तव्य)का प्रतिपादन करता है-तब वह प्रवादों (प्रकल्पित एकान्तवादों) से प्रवाण्य है, (पही अपने द्वारा प्राश वस्तुके एक अंशको अंशरूप में ही (पूर्व- सब उसकी विशेषता है) और इसीबिये परमशिवीवी रूपमें नहीं) माननेके कारण सम्यक् व्यपदेशको प्राप्त होता सर्वाधिनायक होनेकी छमता रखता है। है-सम्यग्दृष्टि कहलाता है। और मीसिद्धसेनाचार्यने जिन-प्रवचन (शासन). ऐसी हालतमें जिनशासनका सर्वथा नियत' विशेषय लिए 'मिथ्यादर्शन समूहमय' 'अमृतसार' जैसे जिन विशेनहीं बनता। चौथा 'विशेष' विरोषण भी उसके साथ पोंका प्रयोग सन्मतिसूत्रकी अन्तिम गाथामें किया संगत नहीं बैठता क्योंकि जिनशासन अनेक विषयोंके उनका उक्लेख ऊपर पा चुका है, यहाँ उक सूत्रकी पहली प्ररूपवादि सम्बन्धी भारी विशेषतामोंको बियेहए है, गाथाको और ग्धत किया जाता है जिसमें जिनशासनले इतना ही नहीं बल्कि अनेकान्तारमा स्थाबाद उसकी दूसरे कई महत्व विशेषयोंका उक्लेखसवोपरि विशेषता है जो अन्य शासनोंमें नहीं पाई जाती। सिद्ध सिद्धत्या गणमणोवमसुह उवगया। इसीसे स्वामी समन्तभदने स्वयंभूस्तोत्रमें लिखा है कि कुसमय-विमासणं सासणं जिणाणं भवजिणार्थ, 'स्याच्छब्दस्तावके न्याये मान्येषामात्मविद्विषाम(१०२) इसमें भावको जीतने वाले जिलों-महन्तोंकासी बर्षात् 'स्पा' शब्दका प्रयोग भापके हीन्यायमें है, दूसरों चार विरोषयोंसे विशिन बतलाया है-सिद दिपक के न्यायमें नहीं, जो कि अपने कार (धन) के पूर्व उसे एवं प्रतिष्ठित सिखायो स्थान (प्रमावसिद पदावोंका म अपनानेके कारण अपने रात्रभाप बने हुए हैं। साव विपावक शिरबागोंके बिबबुपम सुखस्वरूप मोर
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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