________________
जिनशासन
-
-
-
उसीने सर्व भावभतज्ञानतावण्यवतहानको जाना है। वहीं है। पारमा शव विज्ञानयम है,बहबाला में शरीराविकी भिन्न भिन्न अनेक शास्त्रांम अनेकप्रकारकी शैलीमे कथन क्रिया नहीं करता; पारीरकी क्रियासे उसे धर्म नहीं होता। किया हो; परन्तु उन सर्व शास्त्रोंका मूल तात्पर्य तो पर्याय कर्म उसे विकार नहीं करता और म शुभ-अशुभ विकारी इदि छुपाकर ऐसा शुद्ध प्रारमाही बतलानेका है। भगवान भावोंसे उसे धर्म होता है। अपने शुख विज्ञामवन स्वभावके की वाणीके जितने कथन है उन सबका सार यही है कि भाश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है। जो जीव शुद्ध आमाको जानकर उसका पाश्रय करो। जो जीव ऐसे शुद्ध प्रारमाको अन्तरमें नहीं देखता और कर्मक ऐस शुद्ध प्रास्माको न जाने वह अन्य चाहे जितने शास्त्र निमित्त प्रास्माकी अवस्था में होनेवाले शिक विकार जानता हो और बादिका पालन करता हो, तथापि उसने जितना ही भारमाको देखता है वह भी जैनशासनको नहीं जैनशासनको नहीं जाना है।
देखता; कमके साथ निमित्त मैमित्तिक सम्बन्ध रहित जो जैनशासनमें कथित प्रात्मा जब विकाररहित और सहज एकरूप शुद्ध ज्ञानस्वभावी धास्मा है उसे जीव कर्मके सम्बन्ध रहित है, तब फिर इस स्थूल शरीरके शुद्धनयसे देखता है उसीने सर्व शास्त्रोंके सारको समझा है। भाकारवाला तो वह कहाँसे हो सकता है? जो ऐसे (१) जैनशासनमें कर्मके साथ निमित्त-मितिक मात्माको नही जानता और जड़-शरीरके प्राकारसे श्रात्मा
सम्बन्धका ज्ञान कराते है। परन्तु जीवको वहीं रोक रखनेको पहिचानता है उसने जैनशासन के प्रारमाको नहीं जाना
का उसका प्रयोजन नहीं है वह तो उस निमित्त नैमित्तिक है। वास्तवमें भगवानकी वाणी कैसा मारमा बतलाने में
सम्बन्धकी रष्टि छुड़ाकर असंयोगी प्रात्मस्वमाकी एक्टि निमित्त है ?-प्रबदम्पृष्ट एकरूप राख भास्माको भगवान
कराता है। इसलिये कहा है कि जो जीव कके सम्बन्ध की वाणी बतलाती है और जो ऐसे मामाको समझता
रहित मामाको देखता है वह सर्व जिनशासनको देखता है। है वही जिनवाणीको यथार्थतवा समझा है । जो ऐसे (२) मनुष्य, देव, नारकी इत्यादि पर्यायोंसे देखने पर अबस्कृष्ट भूतार्थ प्रारमस्वभावको न समझे वह जिनवणी अन्य अन्यपना होने पर भी मारमाको उसके ज्ञापक स्वमाको नहीं समझा है। कोई ऐसा कहे कि मैंने भगवानकी वसे एकाकार स्वरूप देखना ही जैनशासनका सार है। वाणीको समझ लिया है परन्तु उसमें कथितभावको पर्यायटिसे प्रारमा भित्र भिन्नपना होता अवश्य है और (-अब-स्पृष्ट शुद्ध प्रात्मस्वभावको) नहीं समझ पाया, शास्त्रों में उसका ज्ञान कराते हैं परन्तु उस पर्याय जितना -तो प्राचार्यदेव कहते हैं कि वास्तवमें वह जीव ही प्रात्मा बतलानेका जनशासनका भाशय नहीं है। किन्तु भगवानकी वाणीको भी नहीं समझा है और भगवानकी एकरूप झायक विम्ब प्रात्माको बतलाना ही शास्त्रोंका वाणीके साथ धर्मका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध उसके सार है; तथा ऐसे भारमाके अनुभवसे ही सम्यग्ज्ञान होता प्रगट नहीं हुआ है। स्वयं अपने पारमामें शुद्ध प्रात्माके है। जिसने ऐसे प्रारमाका अनुभव किया उसने द्रव्यश्चत अनुभवरूप कैमित्तिकभाव प्रगट नहीं किया उसको भगवान और भावभुतरूप जैनशासनको जाना है। की वाणी धर्मका निमित्त भी नहीं हुई; इसलिये वह (8) मामाकी अवस्थामें ज्ञान-दर्शन-वीर्य इत्यादि वास्तवमें भगवानको वाणीको समझा ही नहीं है। की न्यूनाधिकता होती है, परन्तु ध्रुवस्वभावसे देखने पर भगवानकी वाणीको समझ लिया-ऐमा कब कहा जाता मारमा हीनाविकतारहित सदा एकरूप निश्चल है। पर्याहै-कि जैसा भगवानकी वाणीमें कहा है वैसा भाव यकी हीनाधिकताके प्रकारोंका शास्त्रने ज्ञान कराया है। अपने में प्रगट करे तभी वह भागवानकी वाणीको सममा परन्तु उसी में रोक रखनेका शास्त्रका भाशय नहीं है। है और वही जिनशासनमें बा गया है। जो जीव ऐसे क्योकि पर्यायको अनेकताके आश्रयमें हमनेसे एकरूप शुद्ध मात्माको न जाने यह जैनशामनसे बाहर है।
मारमाका स्वरूप अनुभवमें नहीं भाता । शास्त्रोंका भाशय बाद में जब शरीरकी क्रियाको प्रात्मा करता है और तो पर्यायका- व्यवहारका मात्रय छुड़वाकर नियत-एकउसकी क्रियासे प्रारमाको धर्म होता है-ऐसा जो देखता रूप ध्रुव प्रारमस्वभावका अवलम्बन करानेका है, उसीके है (मामता)उसे ता जैनशासनकी गंध भी नहीं है। अवलम्बनले मोक्ष मार्गकी साधना होती है। ऐसे चारमतथा कर्मके कारण प्रात्माको विकार होता है या विकार- भावका अवलम्बन का अनुभव करना सो जैनशासनका भावसे आत्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमें अनुभव है। पर्यायके अनेक भेदोंको रष्टि बोरकर अमेद