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अनेकान्त
[किरण
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रटिसे राख पाल्माका अनुभव करना-बह शास्त्रोंका
देखो, यह अपूर्व कल्याणकी बात है! यह कोई साधाअभिप्राय है।
रणबात नहीं है। यह तो ऐसी बात है कि जिसे समझने (७) भगवान शास्त्रों में शान-पर्शन-चारित्र इत्यादि से अनादिकालीन भवभ्रमणका पन्त मा जाता है गुण भेदसे पाल्माका कथन किया है। परन्तु वहाँ उन भेदों- मारमाकी दरकार करके यह बात समझने योग्य है प्राक्ष के विकल्पमें जीवको रोक रखनेका शास्त्रोंका भाशय नहीं कियासे और पुण्यभावसे पात्माको लाभ होता है-ऐसा है; भेदका अवलम्बन खुदा कर अभेद मात्मस्वभावको मानने की बात तो दूर रही; यहाँ तो कहते हैं कि हे जीव ! बतलाना ही शस्त्रोंका माशय है। भेदके प्राश्रयसे तो उस बाह्यक्रियाको मत देख, पुण्यको मत देख, किन्तु रागकी उत्पति होती है और राग वह जैनशासन नहीं है। अपने अन्तरमें ज्ञानमूर्ति प्रास्माको देख । 'पुण्य सो मैं इसलिए जो जीव भेदके लासे होने वाले विकल्पोंसे नाम हूँ।'-ऐसी रष्टि छोड़कर 'मैं शायकभाव -ऐसी मानकर उनके माधयमें रुके और प्रारमाके अभेद-स्वभावका दृष्टि कर । देहादिकी बाह्यक्रियासे और पुण्यसे भी पार प्राश्रय न करे वह जेनशासनको नहीं जानता है। अनन्त ऐसे अपने शायक-स्वभावी पास्माका अन्तरमें अवलोकन गुणोंसें अभेदमात्मामें भेदका विकल्प छोड़कर, उसे अभे- करना ही जैनदर्शन है। इसके प्रोतरिक्त बोग व्रत-पूजादस्वरूपसे बच में लेकर उसमें एकाग्र होनेसे निर्विकल्पता दिकको जैनदर्शन कहते हैं, परन्तु वास्तव में वह जैनदर्शन होती है। यही समस्त तीर्थ'करोंकी वाणीका सार है और नहीं है प्रत-पूजादिकमें तो मात्र शुभराग है और जैनधर्म यही जैनशासन है।
तो वीतरागमा स्वरूप है। ५. भात्मा चणिक विकारसे प्रसंयुक्त है; उसकी प्रश्न-कितनोंने ऐसा जैनधर्म किया है। अवस्थामें पणिक रागादिभाव होते हैं। उन रागादिभावों उत्तर-अरे भाई ! तुझे अपना करना है दूसरोंका ? का अनुभव करना वह जैनशासन नहीं है। स्वभाव दृष्टिसे पहले तू स्वयं तो अपने मात्माको समझकर जैन हो; फिर देखने पर प्रास्मामें विकार है ही नहीं। क्षणिक विकारसे तुझे दूसरोकी खबर पढ़ेगी ! स्वयं अपने प्रास्माको समझअसंयुक ऐसे शुद्ध चैतन्यधन स्वरूपसे प्रात्माका अनुभव कर अपने प्रास्माका हित कर लेनेको यह बात है। ऐसे करना ही अनन्त सर्वज्ञ-अरिहन्त परमात्माभोंका हाई और वीतरागी जैनधर्मका सेवन कर-करके ही पूर्वकालमें अनंत संतोंका हृदय हैबारह अंग और चौदह पूर्वकी रचनामें जीवोंने मुक्ति प्राप्त की है, वर्तमानमें भी दुनिया में जो कुछ कहा है उसका सार यही है। निमित्त, राग या असंख्य जीव इस धर्मका सेवन कर रहे हैं। महाभेदके कथन भले हों, उनका ज्ञान भी भले हो, परन्तु विदेह क्षेत्र में तो ऐसे धर्मकी पेढ़ी जोर-शोरसे चल रही उन्हें जामकर क्या किया जाये तो कहते हैं कि अपने
है। वहाँ साहात् तीर्थंकर विचर रहे हैं। उनकी दिल्यवान मात्माका परद्रव्यों और परभावोंसे भिष अभेद ज्ञानस्व
१ में ऐसे धर्मका स्रोत वहता है, गणधर उसे भेजते हैं, भावरूपसे अनुभव करो; ऐसे भास्माके अनुभवसे ही पर्याय
इन्द्र उसका भादर करते है, चक्रवर्ती उसका सेवन करते में शुद्धता होती है। जो जीव इस प्रकार शुद्ध प्रास्माको
हैं और भविष्य में भी अनंत जीव ऐसा धर्म प्रगट करके रष्टि में लेकर उसका अनुभव करे वही सर्व सम्तों और
मुक्ति प्राप्त करेंगे। लेकिन उससे अपनेको क्या! अपनेशास्त्रोंक रहस्यको समझा है।
को तो अपने पास्मामे देखना चाहिए। दूसरे जीव मुक्ति देखो यह शुद्ध प्रास्माके अनुभवको वीतरागी कथा
प्राप्त करें उससे कहीं इस मारमाका हित नहीं हो जाता है! वीतरागी देव-गुरु-शास्त्रके अतिरिक्त ऐसी कथा
और दूसरे जीव संसारमें भटकते फिरें उसमे इस मामाकौन सुना सकता है। जो जीव वीतरागी अनुभवकी ऐसी
के कल्यायमें बाधा नहीं पाती। जब स्वयं अपने पारमाको कथा सुनानेके लिये प्रेमसे खड़ा है उसे जैन शासनके देव
सममे तब अपना हित होता है। इस प्रकार अपने मात्माके गुरु शास्त्र पर श्रद्धा है और उनकी विनय तथा बहुमानका
लिये यह बात है. यह तत्व तो तीनों काल दुर्लभ है और शुभराग भी है; परन्तु वह कहीं जैनदर्शनका सार नहीं
इसे समझने वाले जीव भी विरले ही होते हैं। इसलिये है-बहनो बहिमुख रागभाव है।अन्तरमें स्वसम्मुख
स्वयं समझकर अपना कल्याण कर लेना चाहिए होकर, देव-गुरु शास्त्रने जैसा कहा है वैसे मास्माका राग
(-श्री समयसार गाथा ५ पर पूज्य स्वामीजीके रवि पदुमब करना ही जैन-शासनका सार है।