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________________ किरण] मथुराके जैन स्तूपादिकी यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख [२८८ जैन सूत्रों का संस्कार करनेके लिये मथुरामें अनेक कथा कोश' के अन्तरगत रकुमारकी कयामें मधुराके जैन धमणोंका संघ उपस्थित हुमा था। वह सम्मेलन पंच स्तूपोंका वर्णन भाषा है। इस प्रन्यका रचनाकार 'माथुरी वाचना' के नामसे प्रसिद्ध है। (नन्दीची ) ई. सं. २है। तदनंतर ई.सं. १६ में रचित मथुरा भंडारयज्ञकी यात्राके लिये प्रसिर था । (भाव- सामवसूरिक यशस्तिवकपूमें कब हेर फेरके साथ श्यक चूी। देवनिर्मित स्तूपकी अनुमति दी है। सोमदेवने जब एक यह मगर व्यापारका बड़ा केन्द्र था, और विशेषकर स्तूप होना बसखाया है तो हरिषेणने स्तूपोंकी संका बस्वके लिए प्रसिद्ध था। (पावश्यक टीका)। बतखाई है। इन अनुभूतियोंके सम्बन्ध विशेष विचार ___ यहाँके लोग व्यापार पर ही जीवित रहते थे, 10 मोतीचंद्रजीने अपने उक लेख में भली प्रकार किया खेती-बापी पर नहीं' (वृहदकल्प भाग्य,)यहां है। उन्होंने जिमप्रभुसूरिक 'विविधतीर्थकल्प' की स्थल मार्गसे माल माता जाता था। प्राचारांग चूों)। अनुभुतिका सारांश भी दिया है। मथुराके क्षिण पश्चिपकी भोर महोती नामक प्रामको अभी तक विद्वानोंके सम्मुख उपयुक उल्लेख ही प्राचीन ग्रन्थों में मथुरा बताया जाता है। (मुनि कल्याण- पाये हैं। अब मैं अपनी खोजकद्वारा मधुराके जैन स्तुपाविजयजीका श्रमण भगवान महावीर, पृ० ३०१)। दिके बारेमे जो महत्वपूर्ण उपलेख प्राप्त हुये हैं उन्हें इसमें प्राधारित मथुराके देवनिर्मित जैन स्तूपकी क्रमशः दे रहा हूँअनुश्रति व्यवहारमाध्यमें सर्वप्रथम पाई जाती है । ० भाचार्य भद्रबाहकी प्रोपनियुक्तिमें मुनि कहां 'मोतिचन्द्र'क'कुछ जैन मनुवतियाँ और पुरातत्व' शीर्षक विहार करें। इनका निर्देश करते हुए 'वक्के थुमे पाठ लेखमें उस अनुश्राविका सारांश इस प्रकार है- पाता है। टीकाकारने इसका 'स्तूपमथुरायां' इन शब्दों एक समय एक जैनमुनिने मथुरामें तपस्या की। द्वारा स्पष्टीकरण किया है। तपस्यासे प्रसन्न होकर एक जैनदेवीने मुनिको वरदान सं० १३३४ में प्रभावक चरित्रके अनुसार प्रारक्षितदेना चाहा, जिसे मुनिने स्वीकार नहीं किया। रुष्ट होकर सरि मधुराम पधारे थे सब इन्द्रने पाकर मिगोद सम्बन्धी देवीने एनमय देवनिर्मितस्तूपकी रचना की । स्तूपको पृष्या की थी, जिसका सही उत्तर पाकर उसने सन्तोष देखकर बौद भिक्षु वहां उपस्थित हो गये और स्तूपको पाया। हवी प्रन्यके पादजिवरि प्रबंधानुसार ये भी अपना कहने लगे। बौद और जैनोंको स्तूप सम्बन्धि यहां पधारे थे व 'सुपार्श्वजिनस्तुपकी यात्रा की थी। बदाई ६ महीने तक चलता रही। जैन साधुभोंने ऐसी यथागडबडी देखकर उस देवीकी आराधना की। जिसका वरदान 'अथवा मथुरायां स सरिर्गस्वा महायशः लेना पहले अस्वीकार कर चुके थे। देवीने उन्हें राजाके श्रीसुपार्वजिन-स्तुपेऽनमत् श्रीपालमजुसु" पास जाकर यह अनुरोध करनेकी सलाह दी कि राजा इस शर्त पर फैसला करे कि अगर स्तूप गैडोंका है तो उस 'प्रभावकचरित्र' एवं 'प्रबन्धकोश' 'दोनों प्रम्यकि पर गैरिक झंडा फहराना चाहिये, अगर वह जैनका है तो बप्पभरि प्रबन्धके अनुसार यहां धाम राजाने पाश्वनाथ सफेद मंडा। रातों रात देवीनं बौद्धोंका केशरिया मंडा मंदिर बनवाया था जिसकी प्रतिष्ठा बप्पष्टिसरिजीने की बदलकर नोंका सफेद भएडा स्तूप पर लगा दिया और थी। माम रानाके कहनेसे वाक्पतिराजको प्रबोध देनेको वे मथुरा पाये तब वाक्पति राजा 'वराह मंदिर में ध्यानस्थ सबेरे जब राजा स्तुप देखने पाया तो उस पर सफेद मंडा था। सरिजीने इसे 'प्रबोध देकर जैन बनाया. उसका फहराते देखकर उसने उसे जैन स्तूप मान लिया। स्वर्गवास भी यहीं हुमा । बप्पभसूरिसे लेपमय बिम इसके पश्चात् दिगम्बर हरिषेणाचार्य रचित 'बृहत् कलाकारसे बनवाये थे। उनमेंसे एक मथुरामें स्थापित १. वृहबूकल्पभाष्यगत उल्लेखोंक जिषे मुनि पुवय- किया गया। विविध तीर्थ कम्पानुसार बप्पमसिरिजीने विजयजी सम्पादित संस्करणके बडे भागका परिशिष्ट जीर्णोदार करवाया एवं महावीर बिम्बकी स्थापना की। देखिये। इनमें माधरचित प्रथम शती, पादखिप्त पांचवीं,
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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