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________________ कमोंका रासायनिक सम्मिश्रण [१३ बे सम्बन्धादि कब तारहते है। ये सम्बन्धादि कैसे सुख सभी बातोंको नहीं समझ सकते, स्वयं अनुमवारपातका होते या घटते बढ़ते हैं और इनका यह संयुक्त मेज क्यों, प्राप्त करना तो असम्भवसा ही है। संसारमें जानने कसे, कबस्ट सकता है, इत्यादि । इन सबका विधिवत्, योग्य बातों और विषयों की संख्या अनंतानंत, अपरंपार म्यवस्थित, सुनियन्त्रित, सांगोपांग, खलाबद्ध ज्ञान और असीम या असंख्य है। जिन जिन व्यक्तियोंने जिन होना ही शनका परम आदर्श-'सम्यक ज्ञान'-है। जिन बातों और विषयोंकी जानकारी प्राप्त करखी उन्होंने पन्चे सम्यकज्ञानकी वह पूर्णता है जहाँ इन द्रव्यों और उसे दूसरोंका जबानी बतलाया या पुस्तकों में विपिबद्ध तस्वोंके कार्य-कारण, उत्पाद-व्यय-प्रीव्य, संयोग-वियोग, कर दिया उससे होने वाले शानको ही 'श्रुतज्ञाम' कहते क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रकृति स्वभाव गुण प्रारिक विषयमें एक है जिसे पढ़ने और सुनने वाले पढ़कर और सुनकर प्राप्त ऐसी 'स्वात्मापनब्ध अन्तष्टि ' (सम्यकदर्शन) हो करते हैं। सुनने-पढ़ने वालोंमें भी समीकी समझदारी, माय जहाँ हम इनकी प्रगति या क्रियादिको 'ज्ञानदृष्टि' बुद्धि विकाश अथवा मस्तिष्क भित्र-भित योग्यता होते द्वारा प्रत्यक्ष होता हुआ अनुभव करने लगे और फिर कोई हैं उसीके अनुसार खोग विभिन्न धारणाएं बनाते हैं। अाशंकादि इस विषयमें - रह जाय । यही ज्ञान सचमुच बहुतसे व्यक्तियोंकी शिक्षा-दीक्षा ऐसी नहीं कि हन 'सम्बरज्ञान' है और ऐसी अनटि ही सचमुच सम्यक विषयोंकी ओर ध्यान दे सकें। कुछको समयका प्रभाव दर्शन है। जहाँ स्वारमोपलब्ध अन्तप्टिमय ज्ञान तोन है, कुछ दूसरी ही बातों में बंधे हुए है, कुछ इन्हें जल्दी हो पर विषयका ज्ञान हो वह ज्ञान तज्ञान या किताबी नहीं समझते, कुछको यह सब कुछ समझमें ही नहीं शान है जो सुनी सुनाई या पढ़ी पढ़ाई बातों द्वारा अपने माता और अधिकतर तो प्रशिक्षित है अथवाभा-मताम्बरों मनमें कोई विश्वास या श्रद्धान बना लेनेसे हो जाता है. और धर्मसम्प्रदायोंके भेद-भावोंमें बुरी तरह उसमे हुए यह न ती 'स्वोपज्ञ' हैन प्रत्यक्ष अनुभूति करने वाला भ्रमात्मक बातों और धारणामोके चक्कर में पड़े हुए, डीक 'प्रत्यक्षदर्शी है-और इसलिए अधूरा है प्राकृत स्वाभा- मार्ग या दिशामें नहीं चलनेके कारण अथवा जोरदार विक या असली नहीं है । जैसे किसी मनुष्यने अंगूरन प्रचार और प्रभावशाली लेग्व ब्याख्यानके प्रभाव गलत साए हों या हंस पती न देखे हों लेकिन पुस्तकांमें सही, भ्रमपूर्ण जो धारणा बना लेते हैं उन्हीं पर चलने पढ़कर या लोगोंसे सुन कर अंगूरके स्वादकी और हंस जाते हैं। मानवकी प्रायु भी सीमित है। ऐसी हालत में पक्षीकी रूपरेखा रंगादिकी एक धारणा अपने मनमें स्वयं पूर्णज्ञानकी प्राप्ति प्रायः संभव नहीं । हमें सो शीघ्राति बना ली हो और भी इस तरह के बहुतसे हटान्त दिए जा शीघ्र ज्ञानके विकाशके लिए उन सभी लिखित अलिखित सकते हैं जिनमें धारणाका आधार अपना 'स्वानुभव' न बातों और विषयोंके वर्णन और प्रतिपादनसे मदद लेनी है। होकर सुनी सुनाई या पढ़ी पढ़ाई बातों और वर्णनोंके जिसे हम प्राप्त कर सकेंया जिसे हम जरूरी समझे। ही ऊपर हो। हो सकता है कि ऐसी कोई धारणा या ज्ञानका विकाश संसारमें अबतक इसी प्रकार होता आया धारणाए असलियतसे बहुत मेल खाती हों या एकदम है और होता रहेगा। जिन्हें समयका प्रभाव है या जो असलीके अनुरूप ही हों, फिर भी कोई ऐसी धारणा स्वयं स्वानुभव नहीं प्राप्त कर सकते या जिन्हें नीचेसे पा उस व्यक्तिका अंगूर और हंसविषयकज्ञान अधूरा, प्रारम्भ कर उपर चढ़ना है उनके लिए तो 'भतज्ञान' की अपूर्ण और अधकचरा है-असली नहीं है। सच्चा ज्ञान सहायता लेनी ही होगी और जो कुछ पहले के अनुभवी नो उसे तमी होना कहा जायगा जब वह स्वयं विभिन्न ज्ञानी कह गए हैं उसे ही सत्यमानकर चलना होगाप्रकारके अंगूर चखने और हंस पती देखले और तब और ऐसा करके ही कोई व्यक्ति ठीक बोरसे प्रागे भागे अपनी धारणा उनके विषयमें पढ़ी पढ़ाई और सुनी उमति कर सकता है। जिन्हें स्वयं भी कुछ करना है उन्हें सुनाई बातोंके साथ मेल बैठाकर (तुननाकर) जो करे वो भी अपने अनुसंधानों और प्रयोगोंकी सफलता, शुद्धि वहीं धारणा या ज्ञान सच्चा और अधिक पूर्व कहा और समर्थनके लिए पहले किए गए प्रयोगों, अनुभवों आयगा। परन्तु कठिनाई एक यह है कि सभीकी मानसिक और प्राविष्कारों की मदद एवं जानकारी जरूरी है। भाज शक्तियाँ और परिस्थितियाँ एकसी नहीं है। समी कोई संसारमें आधुनिक भौतिक-विज्ञानकी पारपर्यजनक
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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