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________________ १२] अनेकान्त [किरण १ - हैं, तत्वोंका गहरा मन्थन करके जिसे उन्होंने निकाला है किया है। अपने एक दूसर ग्रन्थ 'युक्त्यनुशासन' के अन्तऔर इसखिये जिसके वे स्वयं जनक है। वह निःशंकितादि में भी उन्होंने वीर-स्तुतिको समाप्त करते हुए उस भक्तिगुणोंसे विभूषित ईरष्टि उन्हें पवित्र करे और उनके का स्मरण किया है और 'विधेयामे भक्ति पथि भवत गुरुकुखको ऊँचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठाको बढ़ानेमें समर्थ एवाऽप्रतिनिधी' इस वाक्यके द्वारा वीरजिनेन्द्रसे यह होवे, यह उनकी तीसरी भावना है ।ष्टि-लमी अपने प्रार्थना अथवा भावना की है कि आप अपने ही मामें इन तीनों ही रूपोंमें जिनेन्य भगवानके चरण-कमली जिसको जोइका दूसरा कोई निर्वाध मार्ग नहो, मेरी भक्ति अथवा उनके पद-वाक्ष्योंकी ओर बराबर देखा करती है को सविशेषरूपसे चरितार्थ करो-मापके मार्गकी प्रमोऔर उनसे अनुप्राणित होकर सदा प्रसन्न एवं विकसित बता और उससे अभिमत फलकी सिदिको देखकर मेरा हमा करती है। अतः यह रष्टि-तमी सच्ची भक्तिका ही अनुराग (भक्तिभाव) उसके प्रति उत्तरोत्तर बड़े, जिससे सुन्दर रूप है। सुबद्धामूलक इस सच्ची सविवेक भक्तिसे मैं भी उसी मार्गकी पूर्णतः पाराधना-साधना करता हुमा सुखकी प्राप्ति होती है, शुद्धशीलतादि सद्गुणोंका संर- कर्मशत्र ओंकी सेनाको जीतनेमें समर्थ होऊँ और निःश्रेपण-संवर्धन होता है और प्रात्मामें उत्तरोत्तर पवित्रता यस (मा) पदको प्राप्त करके सफल मनोरथ हो पाती है। इसीसे स्वामी समन्तभदने अन्य अन्तमें उस सक 10 भकिदेवीका बदेही संकारिक रूपमें गौरवके साथ स्म -युगवीर रण करते हुए उसके प्रति अपनी मनोभावनाको ज्यश्न ममी चीनधर्म शास्त्रके अप्रकाशित हिन्दी भाष्यसे। काँका रासायनिक सम्मिश्रण (माधव बंधादि तत्वोंकी एक संचित वैज्ञानिक विवेचना) लेखक-अनन्तप्रसाद जैन, 'खोकपाल' B. S... (Eng.) प्रास्ताविक विश्व में कुखवह मूलद्रव्य हैं और वे हैं:-1जीव पंयुक्त रूपमें निर्मित हैं और अजीव, अचेतन या जड़ (पाल्मा, Soul), अजीव (पुद्रन, Matter), वस्तुएँ प्रायः पुद्गल (Matter) निर्मित हैं। धर्म( other), अधर्म (Conterether) इन मूब ग्योंके अतिरिक जीव और पुद्गलके भाकाश (Space) और (Tinme)। जिनमें सम्बन्धको स्थापित, नियमित, नियन्त्रित और प्रगतिप्रथम दो तो मूब उपादान कारण है और बाकी सहायक। शीलता पूर्वक सक्रियरूपमें संचालित करने वाले पाँच मानवों और सभी जीवधारियोंका निर्माण प्रास्मा और तत्व नसिद्धान्तमें माने गए हैं जिनमें जीव, मजीवको पुद्गल दो प्रयोक संयोगसे ही होता है। बाकी जितनी जोड़ देनेसे इनकी संख्या सात हो जाती है। इन्हें हम भी रस्य या महरच वस्तुएँ संसारमें है वे प्रायः सभी पुद्गल सस तस्व कहते हैं। वे हैं ।जीव, एमजीव, पानव, निर्मित है। धर्म और अधर्म ग्य पुरखों तथा जीवोंकी बंध ५ संवर, निर्जरा और मोच। बादके पांच क्रमशः गति और स्थिति में सहायक है। माकाशमें सभी तत्व यह व्यक्त करते हैं कि पहले दो तत्त्वों या द्रव्योंका वस्तुएं, जीव तथा प्रह-उपग्रहादि अवस्थित है। कान प्रापसी मेल, संयोग, समन्वय, वियोग इत्यादि कैसे होते बस्तुओं और जीवादिके परिवर्तनों में सहायक कारण है। रहते हैं, जीवधारियोंमें ये संयोगादि कितने काल (समय) विश्व में जो हम देखते हैं या तो सजीव हैं या तक क्यों कैसे रहते है। इनका पारस्परिक प्रभाव, क्रिया बालीव। सजीव (जीवधारी) जीव और पुदल द्वारा प्रक्रिया असर इत्यादि से कैसे और किस प्रकार होते है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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