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किरण १] समन्तभद्र-वचनामृत
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- - - ___ 'जीवका शत्रु पाप-मिथ्यादर्शनादिक-और बन्धु सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव । (मित्र) धर्म-सम्यग्दर्शनादिक-है, यह निश्चय करता
सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्त ।। हुआ जो समयको-पागम शास्त्रको-जानता है वह निश्चयसे श्रेष्ठ ज्ञाता अथवा श्रेय-कल्याणका जाता कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीताजहोता है-श्रामहितको ठीक पहचानता है।'
जिन-पति-पद-पद्म प्रेषिणी दृष्टि-लक्ष्मीः ।।१५० व्याख्या-यहां अन्यका उपसंहार करते हुए उत्तम
"जिनेन्द्र के पद-वाक्यरूपी-कमलोंको देखने वाली ज्ञाता अथवा प्रात्महितका ज्ञाता उसीको पतलाया है
दृष्टिलक्ष्मी (सम्यग्दर्शनसम्पत्ति ) सखभमिकरूपमें जिमका शास्त्रज्ञान इस निश्चयमें परिणत होता है कि
मुझे उसी प्रकार सुखी करो जिस प्रकार कि सुखभूमिमिथ्यादर्शनादिरूप पापकर्म ही इस जीवका शत्र और
कामिनी कामीको सुखी करता है, शुद्ध शीलाके रूपसम्यग्दर्शनादिरूप धर्मकर्म ही इस जीवका मित्र है।
में उसी प्रकार मेरी रक्षा-पालना करो जिस प्रकार फलतः जिमका शास्त्र अध्ययन इस निश्चयमें परिणत
विशुद्धशीला माता पुत्रकी रक्षा-पालना करती है और नहीं होता वह 'श्रेयो ज्ञाता' पदके योग्य नहीं है। और
गुणभूषाके रूप में उसी प्रकार मुझे पवित्र करो जिस इस तरह प्रस्तुन धर्मग्रन्य अध्ययनकी दृष्टिको स्पष्ट किया गया है।
प्रकार कि गुणभूषा कन्या कुलको पवित्र करती है
उसे ऊँचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठाको बढ़ाती है। येन स्वयं वीत-कलंक-विद्या
व्याख्या-यह पथ अन्य मंगलके रूपमें है। इसमें
ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रने जिस लक्ष्मीके लिए दृष्टि-क्रियारत्नकरण्ड-भावम् ।
अपनेको सुखी करने आदिकी भावना की है वह कोई नीतस्तमायाति पतीच्छयेव
मामारिक धन-दौलत नहीं है, बल्कि वह सदृष्टि है जो सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु-विष्टपेषु ॥१४॥
ग्रन्थमें वर्णित धर्मका मूल प्राण तथा प्रारमोग्थानकी अनु
पम जान है और जो सदा जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंका-उनके 'जिम भव्य जीवन अपने आत्माको निर्दोपविद्या, आगमगत पद--वाक्यांकी शोभाका-निरीक्षण करते रहनेसे निविष्टि तथा निदोपक्रियारूप रत्नोंक पिटारेक पनपती, प्रसन्नता धारण करती और विशुदि एवं वृद्धिको भावमें परिणत किया है-अपने प्रास्मा सम्य- प्राप्त होती है । स्वयं शांभा-सम्पस होवेसे उमं यहां ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप ररनत्रयधर्मका लक्ष्मीकी उपमा दी गई है । उस दृष्टि-लचमीके तीन
आविर्भाव किया है-उसे तीनों लोकोंमें सर्वार्थसिद्धि- रूप है-एक कामिनीका दूसरा जननीका और तीसरा धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप सभी प्रयोजनोंकी सिद्धि-स्वयं- कन्याका, और वे क्रमशः सुखभूमि, शुद्धशीला तथा गुणवग कन्याकी तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है-उक्त भूषा विशेषणसे विशिष्ट है। कामिनीके रूप में स्वामीजीपर्वार्थमिन्द्रि उमं अपना पनि बनाती है अर्थात् वह चारों ने यहां अपनी उस दृष्टि-सम्पत्तिका उल्लेख किया है जो पुरुषार्थों का स्वामी होता है. उसका प्रायः कोई भी प्रयो- उन्हें प्राप्त है, उनकी इच्छायोंकी पूति करती रहती और जन मिद्ध हुप बिना नहीं रहता।'
उन्हें मुखी बनाये रखती है। उसका सम्पर्क बराबर बना व्याख्या-यहां सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक रहे यह उनकी पहली भावना है। जननीके रूपमें उन्होंने चारित्रम्प स्नत्रयधर्मके धारीको संक्षेपमै सर्वार्थसिद्धिका अपनी उस मूलष्टिका उल्लेख किया है जिससे उनका म्वामी मृश्चित किया है जो बिना किसी विशेष प्रयासके रक्षण-पालन शुरूसे ही होता रहा है और उनकी शुद्धस्वयं ही उसे प्राप्त हो जाती है और इस तरह धर्मके सारे शीलता वृद्धिको प्राप्त हुई है । वह मूलष्टि प्रागे भी फलका उपसंहार करते हुए उसे चतुराईसे एक ही सूत्र में उनका रक्षण-पालन करती रहे, यह उनकी दूसरी भावना गय दिया है। साथही. ग्रन्धका दूसरा नाम 'सनकरण्ड' है। कन्याके रूपमें स्वामीजीने अपनी उस उत्तरवर्तिनी है यह भी श्लंपालंकारके द्वारा सूचित कर दिया है। दृष्टिका उल्लेख किया है जो उनके विचारोंये उत्पन हुई