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अनेकान्त
किरण १]
जान पड़ता है। क्योंकि स्वामा समम्मको बदमा समूह अर्थ अभिमत न होना तो वे सोबा 'भिकाशन' पद ही रख कर सन्तुष्ट हो जाने-उतने से ही उनका काम चल जाता । उसके स्थान पर 'भैच्याशनः' जैजा क्लिष्ट और भारी पद रखने को उन जैसे सूत्रात्मक लेखकोंको जरूरत न होती -खास कर ऐसी हालत में जबकि छन्दादिकी दृष्टिसे भी वैसा करने की जरूरत नहीं थी। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने अपने सुपा उत्कृष्ट आवकके जिंगका निर्देश करते हुए जो उसे भिक्वं ममे पत्तो' जैसे वाक्यकेद्वारा पात्र हाथमें लेकर मिक्षाके लिये भ्रमण करने वाला लिखा है उससे भी प्राचीन समय अनेक घरोंसे मिला लेनेकी प्रथाका पता चलता है । भ्रामरी वृत्ति द्वारा अनेक घरोंसे भिक्षा लेनेके कारण किसीको कष्ट नहीं पहुँचता, व्यर्थके आडम्बरको अवसर नहीं मिलना और भोजन भी प्रायः अनुद्दिष्ट मिल जाता है। 'तपस्थन्' पद उस बाह्याभ्यन्तर पर पराका योतक है जो कमीका निमूलन करके आत्मविकासको सिद्ध करनेके लिये यथाशक्ति किया जाता है और जिसमें अनशनादि बाह्य तपश्चरोंकी अपेक्षा स्वाध्याय तथा ध्यानादिक श्रभ्यन्तर तपको अधिक महत्व प्राप्त है। बाह्य तपमा अभ्यन्तर तपकी वृद्धि के लिए किये जाते हैं । यहाँ इस व्रतधारीके लिये उद्दिष्टविरत या मुलक जैसा कोई नाम न देकर जो 'उत्कृष्ट' पदका प्रयोग किया गया है वह भी अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातको सूचित करता है कि स्वामी समन्तभद्र अपने इस व्रतीको तुल्लकादि न कह कर 'उत्कृष्ट श्रावक' कहना अधिक उचित और उपयुक्त समझते थे । धावकका यह पद जो पहलेसे एक रूपमें था समन्तभइसे बहुत समय बाद दो भागों में विभक्त हुआ पाया जाता है, जिनमेंसे एकको अाजकल 'पुल्लक' और दूसरे को 'ऐलक' कहते हैं । ऐलक पदकी कल्पना बहुत पीछे की है ।
पापमरातिर्धर्मो बन्धुजीवस्य चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्रयोज्ञाता ध्रुवं भवति ॥१४८
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मैक्ष्य-भोजन करता है-मिचाद्वारा ग्रहीत भोजन लेता अथवा अनेक घरोंसे भिक्षा-भोजन लेकर अन्तके घर या एक स्थान पर बैठकर उसे खाता हूं और वस्त्र खण्डका धारक होता है-अधूरी छोटी चादर ( शाटक ) अथवा कोपीन मात्र धारण करता है-वह 'उत्कृष्ट' नामका व्यारहवें पद (प्रतिमा) का धारक सबसे ऊंचे दर्जेकाआवक होता ६"
व्याख्या- यहां मुनियनको जानेकी जो बात कही गई है वह इस तथ्य को सूचित करती है कि जिस समय यह ग्रन्थ बना है उस प्राचीनकाल में जैन मुनिजन वनमें रहा करते थे चैत्यवासादिकी कोई प्रथा प्रारम्भ नहीं हुई थी । घरसे निकल कर तथा मुनिवनमें जाकर ही इस पदके योग्य सभी बाँको ग्रहण किया जाता था जो बत पहलेसे ग्रहण किए होते थे उन्हें फिरसे दोहराया अथवा नवीनीकृत किया जाता था। बहकी यह सब किया गुरुसमीपमें- किसीको गुरु बनाकर उसके निकट श्रथवा गुरुजनोंको साथी करके उनके सानिध्य में की जाती थी। आजकल सुनिजन अनगारित्व धर्मको छोड़ कर प्रायः मन्दिरा मठों तथा गृहोंमें रहने लगे हैं अतः उनके पास वहाँ जाकर उनकी साचो अथवा अर्हतको प्रतीकभूत किसी विशिष्ट जनप्रतिमा के सम्मुख जाकर उसकी साक्षी से इस पदके योग्य व्रतोंको ग्रहण करना चाहिये ।
इस पदधारीके लिए 'भैश्वाशन:'- 'तपस्यन्' और 'लधरः' ये तीन विशेष खास तीरसे ध्यान में लेने योग्य हैं। पहला विशेषण उसके भोजनकी स्थितिका, दूसरा साधनाके रूपका और तीसर बाह्य वेष का सूचक है। वेधकी दृष्टिसे वह एक वस्त्रखण्डका धारक होता है, जिसका रूप या तो एक ऐसी छोटी चादर जैसा होता है जिससे पूरा शरीर ढका न जा सके-सिर ठका तो पैरो यादिनांचे भाग सुख गया और नीचेका भाग ढका
सिर आदिका ऊपरका भाग खुल गया और या वह एक संगोटीके रूपमें होता है जो कि उस वस्त्रखडकी चरम स्थिति है | 'भैer' शब्द भिक्षा और 'भिक्षा समूह' इन दोनों ही अर्थोंमें प्रयुक्त होता है प्रभाचन्द्र ने अपनी टीका 'भिक्षायां समूहो भैच्यं' इस निकके द्वारा 'मिक्षासमूह' अर्थका ही महय किया है और वह ठीक * "भिचैव तत्समूहो या भए वामन शिवराम - एप्टेकी संस्कृत इंगलिश डिक्शनरी ।
x देखो, 'देशक पदकश्पना' नामका वह विस्तृत निबन्ध जो अनेकान्त बर्ष १० वें की संयुक्त किरण ११-१२ में प्रकाशित हुआ है और जिसमें इस ११ वीं प्रतिमाका बहुत कुछ इतिहास आगया है।