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________________ १४] अनेकान्त [किरण १ उम्नति इसी तरह हुई है, हो रही है और होगी। इस और उत्तर हो सकते हैं उन्हें कुल सात भागों में विभक विज्ञानके ज्ञानोंमें पारस्परिक मतभेद, विरोध या पूर्वार्ध कर दिया गया ई-इसलिए इसे 'सप्तभंगी' भी कहते उत्तरार्धमें विरोधाभाव नहीं होनेसे एक अंखलाकी हैं। यह एक (System of reasoning तरह प्राविष्कार होते जाते हैं और ज्ञानकी वृद्धि उत्तरोत्तर and analysing) दर्शन न्याय, तर्क और होती जाती है। इस तरहके भौतिक-विज्ञानको भौतिक- विवेचना अथवा अन्वेषणकी पद्धति है और 'स्याद्वाद' विषयोंका 'सम्यक ज्ञान हम कह सकते हैं। जिसका सब वाद" एक महान "मथनी" है जिसके द्वारा "ज्ञान महोकुछ प्रत्यक्षरूपसे प्रमाणित और सिद्ध है। दधि" का मंथन करनेसे ग्यारह महान् रत्न निकले हैं। यही बात दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और जीव-अजीव महाभारतकी कथामें जैसे देवताओं और राक्षसोंने श्रादिके ज्ञान-विज्ञानके बारेमें हम नहीं पाते हैं। यहां तो तीरमहासागरका मंथन करके चौदह रत्न प्राप्त किए जितनी शाखाए या भिन्न-भिन्न दर्शन-पद्धतियाँ हैं उनके उसी तरह स्याद्वाद मथानीकी सहायतासे जैन तीर्थकरोंने भिन्न २ मत और एक दूसरेके कमवेश विरोधी सिद्धान्त ज्ञान-महासागरका मंथन करके संसार और मानवताके हर जगह मिलते हैं। इन विरोधोने एक भारी घपला, कल्याणके लिए इन महान रत्नोंको प्रकाशित किया। गरबड़ी या गोलमाल उत्पन्न कर लोगोंको इस विषयके पट इन्य और पाँच तत्व-ये ही वे ग्यारह महा दिव्य-मपूर्वसन्यवस्थित विज्ञानसे प्रायः वंचित कर रखा है। यह इस अनुपम रत्न हैं। इनके बिना संसारके बाकी सारे ज्ञान संसारका दुर्भाग्य अबतक रहा है और जबतक ये विरोध खोखले, अपूर्ण, अधकचरे या किसी हद तक भ्रमपूर्ण और भित्रयाएं रचनामक रूपस (in a Constructive अथवा अंशतः या पूर्णतः मिथ्या हैं। अनेकान्त अथवा way) दूर न की जायगी संसारकी अव्यवस्था, लड़ाई, स्याद्वादकी इस अहीय (Without any paraझगडे, हिसादि, शोषण और दुःख दारिद्रय दूर नहीं हो llel) पद्धतिको दूसरे लोग धर्मद्वेष, स्वार्थ, प्रमाद अथवा मकते। विभिन्न राजाओं या गुट्टाके प्रभावमें नहीं अपना पाए। वस्तके अनेकों गुण और परिवर्तनानुसार अनंको रूप और तब मतमतान्तरांका समन्वय या एकता कभी भी तथा एक दुसरेके साथ भिन्न भिन्न वस्तुओंकी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकी। हर धर्म, दर्शन और मत एक दूसरेका क्रिया प्रक्रियाएं होती हैं। सबके असर प्रभाव अलग- कम बेश विरोध करते रहे। लोग मानव मानवको एक और अलग स्थानों, परिस्थितियों एवं संयोग अथवा मेबमें मान या एक कुटुम्बके व्यक्ति न समझकर अलग अलग विभिन्न या अलग अलग होते हैं। ऐसी हालत में किसी धर्मों, सम्प्रदायां और जातियों श्रादिके रूप में ही देखते, एक वस्तुके विषयको पूर्ण जानकारी तो तभी प्राप्त हो समझतं और व्यवहार करते रहे । इतना ही नहीं तत्वोंके सकती है जब उसको हर क्रिया प्रक्रियाकी हर अवस्थाकी, अज्ञानमें लोगांने तरह तरहके नीति, नियम और शृंखहर दूसरे बस्तुके साथकी और विभिन्न संयोगोंके साथकी लाएं समय समय पर बना कर राज्यादेशके जोरसे जांच, प्रयोग, अनुसंधान और अन्वेपण अकेला भी और उन्हें प्र_लत करा दिया और वे ही समयके साथ रूढ़ियों सामूहिक रूपसे भी करके ही कुछ विवेचनारमक एवं और "सत्य" में परिणत हो गए और स्वयं सत्यका लोप सम्मिलित फल (Results) या सिद्धान्त या अंतिम होते होते या अपभ्रंश होते होते वह विकृत हो गया। निर्णय (Final conclusion) निकालें और तब कोई जैनगुरुत्रांने भी लोक या संसारमें प्रचलित रीति नीतिधारणा उस विषय या वस्तुके गुण क्रिया प्रादिके बारेमें के प्रभावमें पड़कर पदव्य और पाँच तत्वोंके साथ दो बनाई जाय । यही धारणा या ज्ञान सही ठीक और और तत्व निर्माण करके जोड़ दिये । वे दोनों हैं 'पुण्य" विधिवत् (सम्यक् - Systematte, selentific and और "पाप । इस तरह प्रास्त्रव बंध, संवर, निर्जरा और Mational) होगा। इस प्रकार किसी वस्तु या विषय- मोक्षके साथ पुण्य और पाप मिलाकर तथा मूलद्रव्य की जांच करने को ही "अनेकान्त" पद्धति कहते है। जीव और अजीव मिलाकर कुल नौ तस्व या पदार्थ मान अनेकान्तका ही दूसरा नाम जैनदर्शनमें "स्याद्वाद" लिए गए। सच पूछिए तो पुण्य और पाप तो सांसारिक रखा गया है। इसमें किसी भी विषयके जितने भी प्रश्न या लोक-व्यवहारकी दृष्टिसे प्रचलित नियमों, व्यवस्थाओं
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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