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________________ किरण ] सलखना मरण अर्थ-प्रात्मा, प्रात्म-सम्बन्धी रागादिककी उत्प- उपयोग सरल रीतिसे इसमें संलग्न हो जाता है। उपतिमें स्वयं कदाचित् निमित्तताको प्राप्त नहीं होता है। पीण कायमें विशेष परिश्रम करना स्वास्थ्यका बाधक होता अर्थात् मात्मा स्वकीय रागादिकके उत्पन्न होनेमें अपने है, अतः पाप सानन्द निराकुलता पूर्वक धर्मध्यानमें अपना आप निमित्त कारण नहीं है, किन्तु उनके होने पर वस्नु अपना समय यापन कीजिये। शरीरकी दशा तो अब ही निमित्त है। जैसे प्रकारसमणि स्वयं अग्निरूप नहीं जीण सन्मुख डीरही है। जो दशा यापकी है वही प्रायः परिणमता है किंतु सूर्य किरण उस परिणमनमे कारण है। सबकी है। परन्तु कोई भीतरसे दुयो है तो कोई बामसे तथापि परमार्थ तत्वकी गावेषणामें वे निमित्त क्या बला- दुःखी है। आपको शारीरिक व्याधि है जो वास्तवमें कार अध्यवसान भावके उत्पादक हो जाते हैं? नही, अधातिकर्म साताकर्म जन्य है वह पारमगृणघातक किन्तु हम स्वयं अध्यवसान द्वारा उन्हें विषय करते हैं। नहीं प्राभ्यन्तर व्याधि मोह जन्य होती है। जोकि जब ऐसी वस्तु मर्यादा ई तब पुरुषार्थ कर उस संसार श्रारमगुण घातक ई। जनक भावाक नाशका उद्यम करना ही हम लोगोंका इष्ट म्वाध्याय करिय। और विशेष त्यागके विकल्पमें न होना चाहिये । चरणानुयोगकी पद्धतिम निमित्तको मुख्य- पढिये। केवल शमादिक परिणामों द्वारा ही वास्तविक तासे व्याख्यान होता है। और अध्यात्म शास्त्रमे पुरुषार्थ पाल्माका हित होता है । क्या कोई वस्तु नहीं वह भाप की मुग्यता और उपादानकी मुख्यतामे व्याख्यान पद्धति ही स्वयं कृश हो रही है। उसका क्या विकल्प ? भोजन है। और प्रायः हमे इसी परिपाटीका अनुसरण करना ही स्वयमेव न्यून हो गया है। जो कारण बाधक है उसे विशेष फलप्रद होगा। शरीरकी क्षीणत यद्यपि नवज्ञान यद्याप नवज्ञान प्राप बुद्धि पूर्वक स्वयं त्याग रहे हैं। मेरी तो यही भावना में बाह्य दृष्टिसं कुछ बाधक है तथापि मम्यग्जानियोंकी यम्जानियाका है-"प्रभु पाश्वनाथ स्वरूप परमात्माके ध्यानसे, आपप्रवृत्तिमें उतना पाधक नहीं हो सकती। यदि वेदनाकी की आत्माको इम बन्धन तोड़नेमें अपूर्व सामध्ये अनुभूनिमें विपरीतताकी कणिका न हो तब मेरी समझमे मिले।" हमारी ज्ञानचेतनाकी कोई क्षति नही है। कहने और लिम्बने और वाक् चातुर्य में मोतमा कल्याणके मूल मन्त्रको मत भूलिये नहीं । मांधमार्गका कुर तो अताकरणम निज पदार्थ में स्वतन्त्र भाव ही श्राम कल्याणका मूल मन्त्र है। ही उदय होता है। उसे यह पर जन्य मन, बच्चन, काय क्योंकि पान्मा वास्तविक दृष्टिमं नी सदा शुद्ध ज्ञानानन्द क्या जानं । यह नो पुदगल दुग्यके विलास है। जहाँ पर स्वभाववाला है कर्म-कलमही मलिन हो रहा है। उन पुद्गलोंकी पर्यायाने ही नाना प्रकारक नाटक निग्या कर सो इसके पृथक करनेकी जो विधि है उस पर भाप रूट उस ज्ञाता दृष्टाको इस संसार में चक्करका पात्र बना रखा है। बाहय क्रियाकी त्रटिश्रामपरिणामकी बाधक नहीं है । अतः अब दीपमे तमोराशिको भंदकर और चन्द्रमे और न मानना ही चाहिये । सम्यग्दृष्टि जो निन्दा नया परपदार्थ जन्य भानपको शमन कर सुधा समुद्र में अवगा- गर्दा करना है. यह प्रशुद्धोपयोगकी है न कि मन, वचन. हन कर, वास्तविक सरिचढानन्द होनकी योग्यताके पात्र कायके व्यापार की। बनिये | वह पात्रता प्रापमें है। केवल साहस करनेका देहकी दशा जेमी शाम्त्रमें प्रतिपादित है तदनुरूप ही बिलम्ब है। अब इस अनादि संसार जननी कायरताको है. परन्तु इसम हमारा क्या घात हुवा। यह हमारी दग्ध करनेसे ही कार्य पिद्धि होगी। निरन्तर चिन्ता कर- दिगांबर नहीं हुवा । घटके पानसे दीपकका घात नहीं नेसे क्या नाम ? लाभ तो श्राभ्यन्तर विशुदिमे है। हाला। पदाका परिचायक ज्ञान है। उत्तर ज्ञानमें ऐसी विशुद्धिका प्रयोजन भदज्ञान है। अवस्था शरीर प्रतिभासिन होती है एतावत् क्या ज्ञान शास्त्र-स्वाध्याय कीजिये तद्प होगया। भेदज्ञानका कारण निरन्तर अध्यात्म प्रन्योंकी चिन्त- पूर्णकाच्युत शुद्धवाधमहिमा बोद्धा न बोध्यादयम् । ना है। अतः इस दशामें प्रन्याध्ययन उपयोगी होगा। यायाशाप विक्रयां तत इतो दोषः प्रकाश्यादपि।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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