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अनेकान्त
[किरण १
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तद्वस्तुस्थितिवोधवन्ध्यधिपणा ते किमज्ञानिनो। दृष्टि में केवल साता ही नहीं निकल रही, साथ ही मोहरागदपमयी भवन्ति सहजा मुचत्युदामीनताम ।।
चियासीनता की अरति आदि प्रकृतियां भी निकल रहीं हैं। क्योंकि
भाप इस असाताको सुखपूर्वक भोग रहे हैं। शान्तिपूर्वक __अर्थपूर्ण अद्वितीय नहीं च्युत है शुद्धबोधकी।
कर्मोके रसको भोगना आगामी दुःखकर नहीं। महिमा जिमकी ऐमा जो बोद्धा है वह कभी भी बोध्य
जितने लिखने वाले और कथन करने वाले तथा पदार्थक निमित्त से प्रकाश्य (घटादि) पदार्थसे प्रदीपकी तरह किसी भी प्रकारकी विकियाको नहीं प्राप्त होता है।
कथन कर बाह्य चरणानुयोगक अनुकूल प्रवृत्ति करने इस मर्यादा विषयक बोधर्म जिसकी बुद्धि बन्ध्या है वे
वाले तथा पार्षवाक्या पर श्रद्धालु व्यक्ति हुए हैं, अथवा अज्ञानी है। वे हो रागद्वेषादिकके पात्र होते हैं और
है तथा होंगे, क्या मर्व ही मोक्षमार्गी है ? मेरी श्रद्धा स्वाभाविक जो उदासीदता है उसे त्याग देते हैं। श्राप
नहीं । अन्यथा श्री कुन्दकुन्दस्वामीने लिखा है-हे
प्रभो! हमारे शत्रको भी द्रव्यलिंग न हो' इस वाक्य विज्ञ है, कभी भी इस असाय भावका आलम्बन न।
को चरितार्थता न होती तो काहे को लिखते । अतः परकी मृत्युसे मत डरिये
प्रवृत्ति देव रञ्चमात्र भी विकम्पको श्राश्रय न देना ही अनेकानेक मर चुके तथा मरते हैं। इससे क्या प्राया हमारे लिये हितकर है। आपके ऊपर कुछ भी आपत्ति एक दिन हमारी भी पर्याय चली जावेगी इसमें कौनसी नहीं, जो अात्महित करने वाले हैं वह शिर पर भाग पाश्चर्यकी घटना है। इसको तो आपसे विज्ञ पुरुपोंको लगाने पर तथा सर्वाङ्ग अग्निमय आभूषण धारण कराने विचार कोटिसे पृथक रखना ही श्रेयस्कर है।
पर तथा मन्त्रादि द्वारा उपदित होने पर मोक्ष-लक्ष्मीके वेदनासे भयभीत मत होइये
पात्र होते हैं। मुझे तो आपकी असाता और श्रद्धा दोनों
का साथ देखकर इतनी प्रसन्नता होती हैं कि हे प्रभो ! ___ जो वेदना असाताके उदय आदि कारण कूट होने पर यह अवसर मबको दे। आपकी केवल श्रद्धा ही नहीं उत्पन्न हुई और हमारे ज्ञान प्रायी वह क्या वस्नु है ?
किन्तु आचरण भी अन्यथा नहीं। क्या मुनिको जब परमार्थसे विचारा जाय तो यह एक तरहसे सुग्व गुणम
तीव व्याधिका उदय होता है, तब बाह्य चरणानुयोग विकृति हुई, वह हमारे ध्यानम अायो । उसे हम नहीं
आचरणके असदभावमें क्या उनके छठवां गुण-स्थान चाहते । इसमें कोनमी विपरीतना हुई ? विपरीता तो
चला जाता है ? यदि ऐसा है नब उसे समाधिमरणक तब होती है जब हम उम निज मान लेते । विकारज
समय है मुने ! इत्यादि सम्बोधन करके जो उपदेश दिया परिगतिको पृथा करना अप्रशस्त नही; अप्रशरतता तो
है वह किस प्रकार संगत होगा। पीड़ा श्रादि चित्त यदि हम उसीका निरन्तर चिन्तवन करते रहे और निजत्व
चंचल रहता है इसका क्या यह श्राशय है कि पीडाका का विस्मरण होजावें तब है।
बारम्बार स्मरण हो जाता है। हो जाओ, स्मरण ज्ञान है अतः जितनी भी अनिष्ट सामग्री मिलने दी। उसके और जिसकी धारणा होती है उसका बाह्य निमित्त मिलने प्रति आदरभावसे व्यवहार कर ऋणमोचन पुरुपकी पर स्मरण होना अनिवार्य है। किन्तु साथमें यह भाव तरह प्रानन्दमे साधुकी तरह प्रवृत्ति करना त्ताहिये। तो रहता है कि यह चंचलता सम्यक नहीं । परन्तु मेरी निदानको छोड़कर भात्रिय पष्ठम गुणस्थान तक होते समझमें इस पर भी गम्भीर दृष्टि दीजिये। चंचलता तो हैं। थोड़े समय तक अर्जित कर्म आया, फल कुछ बाधक नहीं । साथमें उसके अतिका उदय और देकर चला गया। अच्छा हुश्रा, श्राकर हलका कर गया। अमाताकी भावना रहती है। इसीसे इसकी महर्षियोंने रोगका निकलना ही अच्छा । मेरी सम्मतिमें निकलना प्रार्तध्यानकी कांटिमें गणना की है। क्या इस भावके रहनेकी अपेक्षा प्रशस्त है। इसी प्रकार आपकी असाता होनेसे पंचम गुणस्थान मिट जाता है ? यदि इस ध्यानयदि शरीरकी जीर्ण शीर्ण अवस्था द्वारा निकल रही है के होने पर देशवतके विरुद्ध भावका उदय श्रद्धामें नहीं तब आपको बहुतही आनन्द मानना चाहिए । अन्यथा यदि तब मुझे तो दृढतम विश्वास है कि गुणस्थानकी कोईभी वह अभी न निकलती तब क्या स्वर्गमे निकलती ? मेरी क्षति नही. तरतमता ही होती है वह भी उसी गुणस्थानमें।