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________________ किरण २] सल्लखना मरण 1५७ - ये विचारे जिन्होंने कुछ नहीं जाना कहां जावेंगे, क्या करें सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितमामाथिभिः सेन्यतां । इत्यादि विकल्पोंके पात्र होते हैं-कहीं जामो हमें इसकी शुद्धं चिन्मयमेकमेव पाम ज्योतिस्सदैवास्म्यहम् ॥ मीमांसासे क्या लाभ ? हम विचारे इस भावसे कहां एते येतु समुल्लसन्ति विविधा भावा-पृथलक्षणाजावेंगे इस पर ही विचार करना चाहिये। स्तेऽहं नाऽस्मि यतोऽत्र. ते मम परद्रव्यं सममा अपि । आपका सरिचदानन्द जैसा आपकी निर्मल दृष्टिने अर्थ-यह सिद्धान्त उदारचित्त और उदार चरित्र निर्णीत किया है द्रव्यदृष्टि से वैसा ही है । परन्तु द्रव्य तो वाले मोक्षार्थियोंको सेवन करना चाहिये कि मैं एक ही योग्य नहीं, योग्य तो पर्याय २, अतः उसके तात्त्विक शुद्ध (कर्म रहित ) चैतन्य स्वरूप परम ज्योति वाला स्वरूपके जो बाधक हैं उन्हें पृथक् करनेकी चेष्टा करना सदैव हूँ। तथा ये जो भिन्न लक्षण वाले नाना प्रकारके हो हमारा पुरुपार्थ है। भाव प्रगट होते हैं, वे मैं नहीं हैं, क्योंकि वे संपूर्ण ___चोरकी सजा देखकर साधुको भय होना मेरे ज्ञानमें परद्रव्य हैं। नहीं आता। अतः मिथ्यावादि क्रिया मयुक्त प्राणियोंका इस श्लोकका भाव इतना सुन्दर और रुचिकर है पतन देख हमें भयभीत होने की कोई भी बात नहीं। हमारे जो हृदयमें पाते ही संसारका प्राताप कहां जाता है तो जब सम्यकस्नत्रयकी तलवार हाथमें आगई है और पता नहीं लगता। वह यद्यपि वर्तमानमें मौथरी धारवाली हैं परन्तु है तो अमि। कर्मेन्धनको धीरे धीरे छेदेगी; परन्तु छेदेगी ही। सन्लेखनाके ऊपर ही दृष्टि दीजिये। बड़े भानन्दसे जीवनोन्सर्ग करना। अंशमात्र भी माकुलता आपके स्वास्थ्यमें पाभ्यंतर तो पति है नहीं, जो है श्रद्धामें न लाना । प्रभुने अच्छा ही देखा है। अन्यथा सो बाह्य हे। उसे पाप प्रायः वेदन नहीं करते, यही उसके मार्ग पर हम लोग न पाते । समाधिमरणके सराहनीय है। धन्य है आपको-जो इस रुग्णावस्थामें योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव क्या पर निमित्त भी सावधान हैं । होना ही श्रेयस्कर है। शरीरकी ही है? नहीं। अवस्था अपस्मार वेगवत् वर्धमान हीयमान होनेसे मध्र व जहां अपने परिणामों में शान्ति पाई वहीं सभी और शीतदाह ज्वरावेश द्वारा अनित्य है। ज्ञानीजनको सामग्री है। उपद्रवहारिणी कल्याण - पथानुसारिणा जो ऐसा जानना ही मोक्षमार्गका साधक है। कब ऐसा समय आपकी हर श्रद्धा है वही कर्म-शत्र वाहिनीको जयनशीला पावेगा जो इसमें वेदनाका अवसर ही न पावे | माशा है तीषण प्रसिधारा है। उसे संभालिये समाधिमरणकी एक दिन मावेगा । जब आप निखिंतावृत्तिके पात्र होगे । अब अन्य कार्योंसे गौणभाव धारणकर सल्लेमहिमा अपने ही द्वारा होती है? खनाके उपर ही राष्ट दीजिये। सत्य दान दीजिये। अब यह जो शरीर पर है शायद इससे अल्प ही ___ मरण समय लाग दान करते हैं। वह दाम तो ठीक कालमें आपकी पवित्र भावनापूर्ण प्रास्माका सम्बन्ध छटही है परन्तु सस्य दान तो लोभका त्याग है और उसको कर क्रियक शरीरसे सम्बन्ध हो जावे। मुझे यह मैं चारित्रका अंश मानता हूँ । मूर्खाकी निवृत्ति ही श्रद्धान हैं कि भापकी असावधानी शरीरमें होगी.न चारित है। हमको इग्य त्यागमें पुण्यबन्धकी ओर दृष्टि धात्म चिन्तवनमें । असातोदयमें यद्यपि मोहके सदभावसे न देनी चाहिये; किन्तु इस द्रव्यसे ममत्व निवृत्ति द्वारा विकलताकी सम्भावना है। तथापि प्रांशिक भी प्रबल शुद्धोपयोगका वर्धकदान समझना चाहिये । वास्तविक मोहके प्रभाव में चिन्तवनका बाधक नहीं हो सकती। मेरी तत्व ही निवृत्तिरूप है। जहां उभय पदार्थका बन्ध है हन श्रद्धा है कि पाप अवश्य इसी पथ पर होंगे। और वही संसार है। और जहां दोनों वस्तु स्वकीय २ गुण- अन्त तक रदतम परिणामों द्वारा इन मुद्र पाधामोंकी पर्यायों में परिणमन करते हैं वही निवृत्ति है यही सिद्धान्त ओर ध्यान भी न देंगे। यही अवसर संसार-जतिका है। नाटक समयसारमें कहा भी है घातका।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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