SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [किरण २ देखिये जिस असावादि कोंकी उदीरणाके अर्थ' इस समय आपके हो रहे । अब केवल स्वास्मानुभव ही महर्षि लोग उग्रोऽग्र तप धारण करते करते शरीरको इतना रसायन पर महोषधि है। कोई कोई तो क्रम-क्रमसे प्रसाकृश बना देते हैं, जो पूर्व नावण्यका अनुमान भी नहीं दिका त्यागकर समाधिमरणका यत्न करते हैं। आपके होता, परन्तु वे पाश्म दिव्य-शक्तिसे भूषित ही रमते हैं। पुण्योदयसे स्वयगेव वह छूटा। वही न छूटा, साथ-साथ पापका भाग्य है जो बिना ही निर्ग्रन्थ पद धारण किये असातोदय द्वारा दु.खजनक सामग्रीका भी प्रभाव हो काँका ऐसा जाधव हो रहा है, स्वयमेव उदयमें श्राकर रहा है। पृथक् हो रहे हैं। अतः हे भाई! आप रंचमात्र क्लेश न करना, वस्तु पूर्व अर्जित है। यदि वह रस देकर स्वयमेव प्रात्माको आपके ऊपरसे मार पृथक हो रहा फिर आपके सुख लघु बना देती है तो इसमे विशेष और प्रानन्दका क्या की अनुभूति तो श्राप ही जानें । शान्तिका मूल कारण । जाना का कारण अवसर होगा? न साता है और न असाता, किन्तु साम्यभाव है। जो कि -(वर्णी वाणीस) काँका रासायनिक सम्मिश्रण ( आश्रव बंधादि तत्वोंकी एक संक्षिप्त वैज्ञानिक विवेचना) (ले०-अनन्तप्रसाद जैन, 'लोकपाल' B. Sc. Eng.) (गत किरणसे आगे) किसी भी जीवधारीका शरीर पुद्गल परमाणुओंका सकता है न अन्य इन्द्रियाँ ही उसे अनुभूत कर सकती एक संगठित पुज है । शरीरकर्म और हलन चलनका हैं। इन्द्रियां उन्हीं बातों, विषयों या वस्तुओंकी अनुआधार है जबकि शरीरके भीतरका अदृश्य प्रारमा 'ज्ञान भूति प्राप्त कर सकती हैं । जो पुद्गलमय या पुद्गल चेतना' का कारण है। प्रारमा अरूपी होते हुए भी सारे निर्मित हैं। चेतनामय या जीवनमय संज्ञान वस्तुओं (जीव शरीर में व्याप्त होनेके कारण जिस शरीरमें विद्यमान रहता धारिया) को छोड़कर संसारका बाकी सारी ही वस्तुएं या उस शरीरकी रूपाकृतिको धारण किए रहता है शरीर शक्तियां पुदगल निर्मित है। पुद्गलको ही अंगरेजी में मैटर तो स्वयं अचेतन-पुद्गल-निमित्त होनेसे संज्ञान या चेतना- (Matter) कहते हैं। श्रात्मा (जीव-Soul) और पूर्ण कुछ भी कार्य स्वयं नहीं कर सकता यदि उसके भीतर पुदगल ( Matter) का संयोग किस प्रकार रहता है, चेतन-मात्मा नहीं रहता, जैसा कि हम दूसरो बेजान कैसे परिवर्तित होता रहता है, कैसे छट सकता है, या कैसे वस्तुमाके बारेमें देखते या पाते हैं। प्रारमा भी अकेला छूट जाता है इन्हीं क्रियाओंका विधिवत् ज्ञान प्रास्त्रव, नहीं रहता जब तक उसे अन्तिम रूपसे 'मोक्ष' न मिल संवर बंध, निर्जरा, मोसकी विधियोंको ठीक ठीक जाननेसे जाय। सर्वदासे पुद्गलके आधार या संयोग द्वाराही ही हो सकता है। पुदगल क्या है और पुद्गलका रूप संसारमें आत्माकी अवस्थिति संभव रही है। क्या है । यह भी जानना सबसे पहले जरूरी है। इसका भास्मा अकेला कुछ नहीं कर सकता-संसारमें हम ठीक ज्ञान हमे प्राधुनिक विज्ञानमें वर्णित ऐटम मौलेजो कुछ जीवन मुक्त और चेतनामय हलन चलन, क्रिया- क्यूल और इलेक्ट्रन इत्यादिकी जानकारी द्वारा ही संभव कलाप आदि देखते हैं वे सब मारमा और पुद्गलके संयुक्त है। जबकि श्रत अथवा शास्त्रों में वर्णित और भाचार्यों कर्म ही है। प्रात्मा कर्मही हैं। प्रात्मा तो शुद्ध, अदृश्य, द्वारा प्रस्थापित सिद्धान्तोंका विधिवत मनन करके, तर्क और प्ररूपी और पुद्गल रहित होनेसे न तो आँखांसे देखा जा बुद्धिपूर्वक विवेचना द्वारा जीवधारियोंके कार्य कलापका
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy