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________________ अनेकान्त किरण १] 'कि काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्त उववासो। रामवाण औपधिका सेवन कीजिये अमायण मौरण-पहुदी समदारहियस्स समणस्स ॥' अतः अब इन परनिमित्तक श्रेयोमार्गकी प्राप्तिके अर्थ-समताके बिना वननिवास और कायक्लेश प्रयल में समयका उपयोग न करके स्वावलम्बनकी ओर तथा नाना उपवास तथा अध्ययन मौन प्रादि कोई दृष्टि ही इस जर्जरावस्थामें महती उपयोगिनी रामबाण उपयोगी नहीं। अतः इन बाझ साधनोंका मोह व्यर्थ तुल्य अचुक औषधि है । तदुक्तम्ही है । दीनता और स्व कार्य में प्रतत्परता ही 'इतो न किञ्चित् परतो न किञ्चित् , मोहमार्गका घातक है । जहाँ तक हो इस पराधीनताके यतो यतो यामि तता न किञ्चित् । भावांका उच्छेद करना ही हमारा ध्येय होना चाहिये । हा प्रात्मन् ! तूने यह मानव पर्यायको पाकर भी विचार्य पश्यामि जगन्न किश्चित्, निजतत्वकी ओर लक्ष्य नहीं दिया। केवल इन बाह्य स्वात्माव वोधादधिकं न किश्चित् ।।' पञ्चेन्द्रिय विषयोंकी प्रवृत्तिमें ही सन्तोष मानकर अपने अर्थ-इस तरफ कुछ नहीं है और दूसरी तरफ भी स्वरूपका अपहरण करके भी लज्जित न हुवा। कुछ नहीं है तथा जहाँ जहाँ मैं जाता हूँ वहाँ वहाँ भी तद्विषयक अभिलाषाकी अनुत्पत्ति ही चारित्र है। कुछ नहीं है। विचार करके देखता हूँ तो यह संसार भी मोक्षमार्गमें सर्वरतत्त्वही मुख्य है। निर्जरा तत्वकी महिमा कुछ नहीं है। ग्वकीय पात्मज्ञानसे बढ़कर कोई नहीं है। इसके बिना स्याद्वादशून्य आगम अथवा जीवनमून्य शरीर इसका भाव विचार स्वावलम्बनका शरण ही संसार अथवा नेत्रहीन मुखकी तरह है। अतः जिन जीवोंको बन्धनके मोचनका मुख्य उपाय है। मेरी तो यह श्रद्धा है मोक्ष रुचता है उनका यही मुख्यध्येय होना चाहिए कि जो जो सर्वर ही सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका मुल है। अभिलाषाओके उत्पादक चरणानुयोगोकी पद्धति प्रतिपा मिथ्यात्वकी अनुत्पत्तिका नाम ही ता सम्यग्दर्शन है। दित साधनोंकी और लक्ष्य स्थिर कर निरन्तर स्वान्मात्य और श्रज्ञानकी अनुत्पत्तिका नाम सम्यग्ज्ञान नथा रागादिसुखामृतके अभिलाषी होकर रागादि शत्र योंकी प्रबल ककी अनुम्पत्ति याख्यात चारित्र और योगानुम्पत्ति ही सेनाका विध्वंस करनेमे भगीरथ प्रयत्न कर जन्म सार्थक परमययाख्यातचारित्र है। श्राः संवर ही दशन ज्ञान किया जावे किन्तु व्यर्थ न जावे, इसमें यस्नपर होना चारित्राधनाके व्यपदेशको प्राप्त करता है तथा इसका नाम चाहिये । कहाँ तक प्रयत्न करना उचित है? जहाँ तक तप है, क्योंकि इच्छानुरोधका नाम ही तप है। पूर्णज्ञानकी प्राप्ति न हो। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि इच्छाका न होना ही तप "भावयेद् भवज्ञ नमिदमच्छिन्नवारया। है। अतः तप पाराधना भी यही है । इस प्रकार सर्वर ही यावत्तावत्सरान्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिनम" चार धाराधना है, अतः जहाँ परमं श्रेयोमार्गको आकाअर्थ-यह भेदविज्ञान अखण्डधारासे भावो, जब क्षाका त्याग है वहां श्रेयोमार्ग है। तक कि परद्रव्यसे रहित होकर ज्ञान ज्ञानमें (अपने स्व प्रभु बननेका पुरुषार्थ कीजिये रूपमें ) न ठहर जाय। क्योकि सिद्धिका मूलमन्त्र भेद- हमें आवश्यकता इस बातकी है कि प्रभुके उपदेशके विज्ञान ही है। वही श्री पारम-तत्त्वरसास्वादी अमृतचन्द्र- अनुकूल प्रभृकी पूर्वावस्थावत आचरण द्वारा प्रभु इवसूरिने कहा है: प्रभुताके पात्र हो जावें । यद्यपि अध्यवसानभाव परनिमि'भेदविज्ञानतःसिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तक है। यथातस्यैवाभावतो बद्धा बनाये किल केचन।' न जातु रागादिनिमित्तभावअर्थ-जो कोई भी सिद्ध हुए है वे भेद-विज्ञानसे मात्माऽऽत्मनो याति यथार्ककान्तः। ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई बन्धे है वे भेद विज्ञानके तस्मिन निमिनं परसंग एव, न होनेसे ही बन्धको प्राप्त हुए हैं। वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत ॥
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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