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________________ किरण १] सञ्जखना मरण [५३ डिये हैं किन्तु उपादानकी अपेक्षा जीवके हैं और निमित्त कारण साम्राज्यलचमीका भोक्ता होना हुअा लोक शिखरमें की अपेक्षा पुदगलके है।और द्रव्यदृषिटकर देखें तो न पुद् विराजमान होकर तीर्थङ्कर प्रभुके ज्ञानका विषय होकर गलके हैं और न जीवके हैं, शुद्धदम्यके कथनमें पर्यायकी हमारे कन्यागामें सहायक होता है। मुख्यता नहीं रहती। अतः ये गौण हो जाते है । जैसे पुत्र पर पर्याय स्त्री पुरुष दोनोंके द्वारा सम्पन्न होती है। अस्तु इससे श्रेयोमार्गको सन्निकटता जहाँ जहाँ होती है वह वस्तु यह निष्कर्ष निकला यह जो पर्याय है, वह केवल जीवकी पूज्य है, अतः हम और आपको बाह्य वस्तुजातमें नहीं किन्तु पौगलिक मोहके उदयसे श्रात्मा चारित्रगुण- मूर्खाकी कृशना कर ग्रामतखका उत्कर्ष करना में विकार होता है अतः हमें यह न समझना चाहिये कि चाहिये। ग्रन्याभ्यासका प्रयोजन केवल ज्ञानार्जन तक हमारी इसमें क्या क्षति है ? क्षति तो यह हुई, जो अान्मा- ही नही है, साथ ही में पर पदार्थोंसे उपेक्षा होनी की वास्तविक परिणति थी वह विकृत भावको प्राप्त हो चाहिए । प्रात्मज्ञानकी प्राप्ति और है किन्तु उसकी गई । यही तो क्षति है । परमार्थसे क्षतिका यह श्राशय है उपयोगिताका फल और है। मिश्रीकी प्राप्ति और स्वादमें कि प्रात्मामें रागादिक दोष हो जाते हैं वह न हो । तब महान् अन्तर है । यदि स्वादका अनुभव न हुअा तब जो उन दोषांके निमित्तसे यह जीव किसी पदार्थमे अनुक- मिश्री पदार्थ मिलना केवल अन्धेकी लालटेनके सदृश लता और किसीमे प्रतिकूलताकी कल्पना करता था और है, अतः अब यावानपुरुषार्थ है वह इसी में कटिबद्ध होकर उनके परिणमन द्वारा हर्ष-विपाद कर बास्तविक निराकु- लगा देना ही श्रेयस्कर है । जो आगमज्ञान के साथ साथ लता (सुख) के अभावमें श्राकुलित रहता था। शान्तिकं उपेक्षारूप स्वादका लाभ हो जावे । स्वादकी कणिकाको भी नही पाना था ! अब उन रागा विपाद इस पातका है जो वास्तविक प्रारमतत्वका दिक दोषोंके अमभावम प्रारमगुण चारित्रकी स्थिति अकम्प द्योतक है उसकी उपक्षीणता नहीं होती । उसके अर्थ और निर्मल हो जाती है । उसके निर्मल निमित्तको अव. निरन्तर प्रयास हैं । बाह्यपदार्थका छोड़ना कोई कठिन लम्बन कर यास्माका चेनन नामक गुण है वह स्वयमेव नहीं । किन्तु यह नियम नहीं कि अध्यवसानके कारण दृश्य और शंय पदार्थों को तट्टप हो दृष्टा और ज्ञाता शक्ति- छूटकर भी अध्यवमानकी उत्पत्ति अन्तस्थलमें नहीं शाली होकर आगामी अनन्न काल स्वाभाविक परिणमन- होगी। उप वामनाके विरुद्ध शम्ब चलाकर उसका शाली अाकाशादिवत् अकम्प रहता है । इसीका नाम भाव- निपान करना, यर्याप उपाय निदिष्ट किया है, परन्तु फिर मुक्ति है । अब प्रात्माम मोह-निमित्तक जो कलुषता थी भी वह क्या है ? केवल शब्दोकी मुन्दरताको छोड़कर वह सर्वथा निर्मूल हो गई, किन्तु अभी जो योग निमित्तक गम्य नही दृष्टान्त तो स्पष्ट है, अग्नि-जन्य उष्णता जो परिस्पन्दन है वह प्रदेश प्रकम्पनको करता ही रहता है। जलमें हैं उसकी भिन्नता नीष्टि विषय है। यहां तो क्रोधतथा तन्निमित्तक ईर्यापशास्रव भी माता वेदनीयका हुश्रा से जो क्षमाकी अप्रादुभूति है वह यावत् क्रोध न जावे करता है । यद्यपि इसमें थान्मांक स्वाभाविक भावकी क्षति तब तक कैसे व्यक्त हो । उपरमे क्रोध न करना क्षमाका नहीं। फिर भी निरपवयं श्रायुके सदभावमं यावत् ग्रायके माधक नहीं: श्राशयमें वह न रहे यही नो कटिन बात। निषेक हैं तावत भव-स्थितिको मेंटनेको कोई भी क्षम नहीं। रहा उपाय तत्वज्ञान, सो तो हम श्राप सर्व जानते ही हैं तब अन्तमुहूर्त श्रायुका अवसान रहता है। तथा शेष जो किन्तु फिर भी कुछ गृढ़ रहस्य है जो महानुभावोंके ममानामादिक कर्मकी स्थिति अधिक रहती है, उसकालमें गमकी अपेक्षा रखता है, यदि वह न मिले तय प्रात्मा ही तृतीयशुक्लध्यानक प्रसादसं दण्डकपाटादि द्वारा शेष कर्मों- अात्मा है, उसकी सेवा करना ही उत्तम है। उसकी सेवा की स्थितिको श्रायु सम कर चतुर्दश गुणस्थानका ग्रारोहण क्या है "जाना इप्टा" और जो कुछ अतिरिक्त है वह कर नामको प्राप्त करता हुआ लघुपञ्चाक्षरके काल मम गुण- विकृत जानना स्थानका काल पूर्ण कर चतुर्थ ध्यानक प्रसाद शेष प्रकृति- परतन्त्रताके बन्धन तोड़िये योंका नाशकर परम यथाख्यात चारित्रका लाभ करता हुश्रा, वचन चतुरतासे किसीको माहित कर लेना पाण्डित्य एक समय में द्रव्य मुक्ति व्यपदेशताको लाभकर, मुक्ति- का परिचायक नहीं : श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने कहा है:
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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