SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [किरण १ - - - - - प्रौदयिक रागादि होवें इसका कुछ भी रंज नहीं करना अर्थ-एक तरफसे कषाय कालिमा स्पर्श करती है चाहिये । रागादिकोका होना रुचिकर नहीं होना चाहिये। और एक तरफसे शान्ति स्पर्श करती है। एक तरफ बड़े-बड़े ज्ञानीजनोंके राग होता है। परन्तु उस रागमें संसारका प्राघात है और एक तरफ मुक्ति है। एक तरफ रंजकताके प्रभावसे आगे उसकी परिपाटी रोधका (रोकने- तीनो लोक प्रकाशमान हैं और एक तरफ चेतन अात्मा का) प्रास्माको अनायाम अवसर मिल जाता है । इस प्रकार प्रकाश कर रहा है । यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि श्रात्माऔदयिक रागादिकोंकी सन्तानका अपचय बिनाश) होत- की स्वभाव महिमा अद्भुतसे अद्भुत विजयको प्राप्त होती होते एक दिन समूल तलसे उसका प्रभाव हा जाता है है । इत्यादि अनेक पद्यमय भावोस यही अन्तिम करन और तब पारमा स्वच्छस्वरूप होकर इन संसारकी वाम- प्रतिभाका विषय होता है जो आरमद्रव्य ही की विचित्र नाओंका पात्र नहीं होता । मैं आपको क्या लिवू ? यही महिमा है। चाहे नाना दुःखाकीर्ण जगतमें नाना वेष धारण मेरी सम्पत्ति है-जो अब विशेष विकल्पोंको त्यागकर कर नटरूप बहुरूपिया बनें और चाहे स्वनिमित सम्पूर्ण जिस उपायसे राग-द्वेषका प्राशयमें अभाव हो वही श्रापका लीलाको सम्वरण करके गगनवत् पारमार्थिक निर्मल स्वभाव व मेरा कर्तव्य है, क्योंकि पर्यायका अवसान है। यद्यपि धारण कर निश्चल तिष्ट । यही कारण है। "सवे पर्यायका अवसान तो होगा ही किन्तु फिर भी सम्बोधनके खल्विदं ब्रह्म" अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मस्वरूप है। लिये कहा जाता है तथा मूद्रोंको वास्तविक पदार्थका परि- इसमे कोई सन्दह नहीं, यदि वेदान्ती एकान्त दुराग्रहको चय न होनेसे बड़ा आश्चर्य मालूम पड़ता है। छोड़ देवं तब जो कुछ कथन है अक्षरशः सत्य भासमान बारसे देखिये तब आश्चर्यको स्थान नही होने लगे । एकान्तप्टि ही अन्धष्टि है आप भी पदार्थोकी परिणति देखकर बहुतसे जन सुब्ध हो जाते है। अल्प परिश्रमसे कुछ इस ओर भाइये । भला यह जो पंच भला जब पदार्थ मात्र अनन्त शक्तियोंके पुंज है तब क्या स्थार और उसका समुदाय जगत् दृश्य हो रहा है, क्या पुद्गलमें वह बात न हो, यह कहांका न्याय है। आजकल है? क्या ब्रह्मका विकार नहीं ? अथवा स्वमतकी और कुछ विज्ञानके प्रभावको देख लोगोंकी श्रद्धा पुद्गल द्रव्यमे ही दृष्टिका प्रसार कीजिये । तब निमित्त कथनकी मुख्यतासे जाग्रत हो गई है। भला यह तो विचारिये, उसका उपयोग यं जो रागादिक परिणाम हो रहे है, क्या उन्हें पौद्गलिक किसने किया? जिसने किया उसको न मानना यही तो नहीं कहा है ? अथवा इन्हं छोड़िये । जहाँ अवविज्ञानका जड़ भाव है। विषय निरूपण किया है, वहाँ पक्षांपशमभावको भी अवधिबिना रागादिकक कार्माणवर्गणा क्या कर्मादिरूप ज्ञानका विषय कहा है अर्थात्-पुद्गलद्रव्यके सम्बन्धसं परिणमन कराने में समर्थ हो सकती है? तब यो कहिये । जायमान होनेसे क्षायोपशिक भार भी कर्थावत् रूपी है। अपनी अमन्त शक्तिके विकासका बाधक आप ही मोह केवल ज्ञान-भाव अवधिज्ञानका विपय नहीं; क्योंकि उसमें रूपी द्रव्यका सम्बन्ध नहीं । अतएव यह सिद्ध हुआ कि कर्म द्वारा हो रहे हैं। फिर भी हम ऐसे अन्धे हैं जो मोह औयिक भाववत् क्षायांपर्शामक भाव भी कञ्चित् पुद्गलकी महिमा अलाप रहे हैं। मोहम बलवत्ता देनेवाली के सम्बन्धसं जायमान हानेस मूर्तिमान हे न कि रूपशक्तिमान वस्तुको ओर दृष्टि प्रसार कर देखा तो धन्य रसादिमत्ता इनमें है ।तद्वत् अशुद्धताके सम्बन्धसे जायमान उस अचिन्त्य प्रभाव वाले पदार्थको कि जिसकी वक्रदृष्टि होनेसे यह भौतिक जगत् भी कथञ्चित् ब्रह्मका विकार है। को संकोच कर एक समय मात्र सुदृष्टिका अवलम्बन किया कञ्चित्का यह अर्थ है कि जीवके रागादिक भावाके ही कि इस संसारका अस्तित्व ही नहीं रहता। सोही समय निमित्तको पाकर पुद्गल द्रव्य एकेन्द्रियादि रूप परिणमनसारमें कहा है को प्राप्त हैं। अतः जो मनुष्यादि पर्याय हैं वे दो असमान कपायकलिरकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकता। जातीय द्रव्यके सम्बन्धस निष्पन्न है। न केवल जीवकी भवोपतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः।। है और न केवल पुद्गलकी है। किन्तु जीव और पुद्गलजगस्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकारत्येकतः। के सम्बन्धसे जायमान हैं। तथा यह जो रागादि परिणाम स्वभावमहिमाऽऽत्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भतः।। है सां न तो केवल जीवके ही हैं और न केयन पुद्गलके
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy