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किरण १]
सल्लखना मरण
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पद्धतिमे ममाधिके बाह्य संयोग अच्छे होना विधेय है किन्तु आश्रय लिया है वे अवश्य एक दिन पार होंगे। परन्तु परमार्थ दृष्टिसे निज प्रबलनम श्रद्धानही कार्यकर है आप क्या करें, निरन्तर इसी चितामें रहते हैं कि कब ऐसा शुभ जानते हैं कि कितने ही प्रबल ज्ञानियोंका समागम रहे समय श्रावे जो वास्तव में हम इसके पात्र हों, अभी हम किन्तु समाधिकर्ताको उनके उपदेश श्रवण कर विचार तो इसके पात्र नहीं हुए, अन्यथा तुच्छ-सी तुच्छ बातोंमें स्वयं ही करना पडेगा। जो में एक हैं, रागादिक शून्य नाना कल्पनायें करते हुए दुःखी न होते । हूँ, यह जो सामग्री देख रहा हूँ परजन्य है , हेय है, उपा
जिये दय निज ही है। परमात्माके गुणगानसे परमात्मा द्वारा परमात्मपदकी प्राप्ति नहीं किन्तु परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट
हमारा और आपका मुग्य कर्तव्य रागादिकके दर पथ पर चलनेसे ही उस पदका लाम निश्चित है अतः करनेका ही निरन्तर रहना चाहिए, भागमज्ञान और छासर्व प्रकारके झंझटोंको छोड़कर अय तो केवल वीतराग के विना सयतत्त्व भावके मोर
के विना संयतत्व भावके मोक्षमार्गकी सिद्धि नहीं. अतः निर्दिष्ट पथ पर ही प्राभ्यन्तर परिणामसे प्रारूद हो जायो मब प्रयत्नका यही सार होना चाहिये जो रागादिक भावोंबाबा त्यागको बीतकमा निभाव का अस्तित्त्व प्रात्मामें न रहे । ज्ञान वस्तुका परिचय करा बाधा न पहंचं । अपने परिणामांक परिणमनको देखकर ही देता है अर्थात अजाननिवृत्ति ज्ञानका फल है किन्त ज्ञानत्याग करना; क्योंकि जैन सिद्धान्तम सत्य-पथ मूर्छा त्याग
का फल उपेक्षा नहीं, उपेक्षा फल चारित्रका है। ज्ञानमें बालेके ही होता है। अतः जो जन्मभर मोक्षमार्गका अध्य.
भारोपसे वह फल कहा जाता है। जन्म भर मोक्ष मार्ग यन किया उसके फलका समय है उसे सावधानतया उप
विषयका ज्ञान सम्पादन किया अब एक बार उपयोग योगमें लाना । यदि कोई महानुभाव अन्नमें दिगम्बर पद
लाकर उसका अाम्वाद लो। आजकल चरणानुयोगका की सम्मति देवं तब अपनी अभ्यन्तर विचारधारामं कार्य
अभिप्राय लोगोंने परवस्तुके न्याग और ग्रहणमें ही समझ लेना । वास्तवमे अन्तरङ्ग बुद्धिपूर्वक मूर्छा न हो तभी उस
रखा है सो नहीं। चरणानुयोगका मुख्य प्रयोजन तो पदके पात्र बनना। इसका भी बेद न करना कि हम
स्वकीय रागादिकके मंटनेका है परन्तु वह पर वस्तुके शक्तिहीन हो गये अन्यथा अच्छी तरह यह कार्य सम्पन्न
सम्बन्धमे होने हैं अर्थात् पर वस्तु उसका नोकर्म होती है करते, हीन शक्ति शरीरको दुर्बलता है। ग्राभ्यन्तर श्रद्धाम
अतः उमको त्याग करते हैं। सबसे ममत्व हटानेकी चेष्टा दुर्बलता न हो। अतः निरन्तर यही भावना रखना।
करो; यही पार होनेकी नौका है। जब परमें ममत्व भाव
घटेगा नव स्वयमंत्र निराश्रय अहंबुन्द्रि घट जावेगी, क्योंकि 'एगो मे सामढो आदाणाण दसमलम्वगा।
ममन्व और अहङ्कारका अविनाभावी सम्बन्ध है; एकके मेसा मे बहिरा भावा मव्वे संजोगलक्खरणा ॥ बिना अन्य नहीं रहता । सर्वत्याग कर दिया परन्तु कुछ __अर्थ-एक मेरा शाश्वत धान्माज्ञान-दर्शन लक्षणमयी भी शान्तिका अंश न पाया। उपवासादिक करके शान्ति है शेष जो बाहिरी भाव हैं वे मर नहीं है सर्वसंयोगी न मिली, परकी निन्दा और आत्मप्रशंसाले भी श्रानन्दभाव हैं।
का अंकुर न उगा, भोजनादिकी प्रक्रियासे भी लेशमात्र
शान्तिको न पाया। अतः यही निश्चय किया कि रागादिक अतः जहाँ तक बने स्वयं श्राप समाधान पूर्वक अन्य
गय पिना शान्तिकी उदभृति नहीं। अतः पर्व व्यापार को ममाधिका उपदेश करना कि समाधिस्थ प्रान्मा अनन्त शक्तिशाली है तब यह कोनमा विशिष्ट कार्य है। वह तो
उसीके निवारणमें लगा देना ही शान्तिका उपाय है। उन शत्रमाको चूर्ण कर देता है जो अनन्त संसारके
वाग्जालके लिम्बनेसे कुछ भी मार नहीं। कारण ।
वास्तबमें आमाके शत्रु नो राग-द्वेप और मोह है।
जो हम निरन्तर इस दुश्वमय संसारमें भ्रमण करा रहे जिनागमकी नौका पर चढ़ चलिये
है। अतः अावश्यकता इसकी है कि जो राग-द्वेपके प्राधीन इस संसार समुद्र में गोते खाने वाले जीवोंको केवल न होकर म्पास्मोस्थ परमानन्दकी ओर ही हमारा प्रयत्न जिनागम ही नौका है। उसका जिन भव्य प्राणियोंने सनत रहना श्रेयस्कर है।