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अनेकान्त
[किरण १
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अब तो अन्य कथाओंके श्रवण करने में समय को न देकर वह उपादेय है। इसही को समयसारमें श्री महर्षि उस शत्र सेनाके पराजय करने में सावधान हो कर प्रयत्न कुन्दकुन्दाचार्यने निर्जराधिकारमें लिखा है। करना चाहिये।
छिज्जदु वा भिज्जदु वाणिज्जदुवा अहव जादु विप्पलयं । ___यद्यपि निमित्तको प्रधान मानने वाले तर्क द्वारा बहुत- जम्हा तम्हा गच्छदुतह विहु ण परिगही मज्म ।। २०६ सी भापत्ति इस विषयमें ला सकते हैं। फिर भी कार्य अर्थ-यह शरीर छिद जाश्रो अथवा भिद जाश्रो करना अन्तमें तो आप ही का कर्तव्य होगा। अतः जब
अथवा ले जायो अथवा नाश हो जावे, जैसे तैसे हो जाओ तक आपकी चेतना सावधान है, निरन्तर स्वात्मस्वरूपके तो भी यह मेरा परिग्रह नहीं है। चिन्तवनमें लगा दो।
इसीसे सम्यग्दृष्टिके परद्रव्यके नाना प्रकारके परिणश्री परमेष्ठीका भी स्मरण करो, किन्तु ज्ञायककी मन होते हए भी हर्ष-विषाद नहीं होता। अतः आपको ओर लक्ष्य रखना; क्योंकि मैं 'ज्ञाता दृष्टा' हूँ, ज्ञेय भिक्ष भी हम समय शरीरकी क्षीण अवस्था होते हुए कोई भी हैं, उसमें निष्टानिष्ट विकल्प न हो, यही पुरुषार्थ करना
विकल्प न कर तटस्थ ही रहना हितकर है। और अन्तरगमें मूळ ( ममता) न करना । तथा रागा
चरणानुयोगमें, जो परद्रव्योंका शुभाशुभमें निमितत्वदिक भावोंको तथा उसके वक्ताओंको दूर ही से त्यागना।
की अपेक्षा हेयोपादेयकी व्यवस्था की है, वह अल्पप्रज्ञक मुझे अानन्द इस बातका है कि श्राप निःशल्य हैं । यही श्रापक कल्याणकी परमौषधि है।
अर्थ है । आप तो विज्ञ है। अध्यवसानको ही बन्धका जनक
समझ उसीके त्यागको भावना करना और निरन्तर ऐसा शरीर नश्वर है
विचार करना कि ज्ञान दर्शनात्मक जो प्रात्मा है वही उपा
देय है। शेष जो बाह्य पदार्थ हैं वे मेरे नहीं है। __ जहाँ तक हो सके इस समय शारीरिक अवस्थाकी
आपके शरीर की अवस्था प्रतिदिन क्षीण हो रही है और दृष्टि न देकर निजात्माकी ओर लचय देकर उसीक
इसका ह्रास होना स्वाभाविक है । इसके द्वास और वृद्धिसं स्वास्थ्य लाभकी औषधिका प्रयत्न करना । शरीर पर द्रव्य
हमारा कोई घात नहीं, ज्ञानाभ्यासी स्वयं जानते है। है उसकी कोई भी अवस्था हो उसका ज्ञाता दृष्टा ही
अथवा मान लीजिये कि शरीरके शैथिस्यसे तद अवयवभूत रहना । सो ही समयसारमें कहा है
इन्द्रियादिक भी शिथिल हो जाती है तथा द्रव्येन्द्रियके 'कोणाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हदि दव्वं।
विकृत भावस भावेन्द्रिय स्वकीय कार्य करने में समर्थ नहीं अप्पामप्पणो परिगाहं तु णियदं वियागतो ।।२०७ होती है किन्तु मोहनीय उपशम जन्य सम्यक्त्वकी इममें
भावार्थ-यह पर द्रव्य मेरा है ऐसा ज्ञानी पण्डित क्या विराधना हुई ? मनुष्य जिसकाल शयन करता है उस नहीं कह सकता, क्योकि ज्ञानी जीव तो आत्माको ही काल जाग्रत अवस्थाके सदृश ज्ञान नहीं रहता किन्तु जो स्वकीय परिग्रह मानता या समझता है।
सम्यग्दर्शन गुण संसारका अन्तक है उसका आंशिक भी यद्यपि विजातीय दो द्रव्योंसे मनुष्य पर्यायकी उत्पत्ति घात नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्थामे भी सम्यग्दहुई है किन्तु विजातीय दो द्रव्य मिलकर सुधा हरिद्रावत् र्शन माना है जहाँ केवल तेजस कार्माण शरीर हैं। उत्तरएक रूप नही परिणमें हैं। वहाँ तो वर्ण गुण दोनोंका कालीन शरीरकी पूर्णता भी नहीं। तथा आहारादि वर्गणाएक रूप परिणमना कोई आपत्तिजनक नहीं है किन्तु यहां के अभावमें भी सम्यग्दर्शनका सद्भाव रहता है। अतः पर एक चेदन और अन्य अचेतन द्रव्य हैं। इनका एक आप इस बातकी रचमात्र आकुलता न करें कि हमारा रूप परिणमना न्याय प्रतिकूल है। पुद्गलके निमित्तको शरीर क्षीण हो रहा है, क्योंकि शरीर पर इग्य है; उसके प्राप्त होकर श्रारमा रागादिकरूप परिणम जाता है फिर सम्बन्धसे जो कोई कार्य होने वाला है वह हो अथवा भी रागादिकभाव औदयिक हैं। अतः बन्धजनक है, न हो, परन्तु जो वस्तु प्रारमा ही से समन्वित है उसकी श्रात्माको दुःखजनक है, अतः हेय हैं। परन्तु शरीरका सति करने वाला कोई नहीं, उसकी रक्षा है तो संसार तट परिणमन आत्मासे भिन्न है, अतः न वह हेय है और न समीप ही है। विशेष बात यह है कि चरणानुयोगकी