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________________ सल्लेखना मरण (श्री १०५ १ज्य क्षुल्लक गणेशप्रमादजी वर्णी) श्री १०५ पूज्य महामना वर्णीजी का वह लेख सुदीर्घ कालके अनुभव जनित पल्लेखना विषयक-विचारोंका दोहन रूप एक महत्वपूर्ण मंकलन है, जो समाधि-मरणके अवसर पर दीपचन्द्रजी वर्णी, प्र. मांजीलालजी मागर, और बाबा भागीरथजीके पन्नामें लिये गये थे। लेख में उल्लिम्बित भावना एवं विचार प्रत्येक मुमुधुके लिये उपयोगी, पावश्यक और अनुकरणीय है। भाशा है पाठक महानुभाव उनसे यथेष्ट लाभ उठानेका यत्न करेंगे। -सम्पादक सन्लेखना जीवन है। जैसे जिस मन्दिरमें हम निवास करते हैं उसके काय और कषायके कृश करको ही मल्लेबना मदभाव असदभाव, हमको किसी प्रकारका हानियाम (समाधिकहत है। उसमें भी कायकी कृशताकी कोई नहीं। तब क्या हर्ष-विवाद कर अपने पवित्र भावोंको आवश्यकता नहीं, यह पर वस्तु सको न कृश ही कलुपित किया जावे । जैसा कि प्राचार्य अमृतचन्ने नाठक करना और न पुष्ट ही करना, अपने प्राधीन नहीं . समयसारम कहा हैयह स्वाधीन वस्नु है, जो अपनी कपाय को कृश करना; 'पाएमेच्छेनमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो, क्योंकि उसका उदय प्रास्मा में होता है। और उसीके ज्ञान नस्वयमेव शाश्वततगनोच्छियते जातुचित् ।। करण हम कृश हो जाते हैं। अर्थात् हमारे ज्ञान दर्शन तस्यातो मरणं न किचन भवेत्तीः कुतो शानिनो, घाते जाते हैं। और उसके वातसे शान दर्शनका जो निश्शंक मननं स्वयं स सहज ज्ञानं मदाविन्दति ॥' दखना जानना कार्य है वह न होकर इष्टानिष्ट कल्पना अर्थ- प्राणोंके नाशको मरण कहते हैं। और प्राण महित दयना जानना होना है। यही ना दुखका मूल है। इस प्रास्माका ज्ञान है । वह ज्ञान सवरूप स्वयं ही निस्य अतः आप त्यागकी मुख्यता कर शरीरकी कृशतामें उद्यम होने के कारण कभी नहीं नष्ट होता है। अतः इस धात्मान कीजिये रही कपाय कृशकी कथा, सो उसके अर्थ का कुछ भी मरण नहीं है तो फिर ज्ञानीको मरणका भय निरन्तर चिपमें नन्मयता ही उसका प्रयोजन है। प्रौद- कहांसे हो सकता है? वह ज्ञानी स्वयं निःश होकर यिक भावांका सकना तो हाथ की बात नहीं. किन्तु श्रौढ- निरन्तर स्वाभाविक ज्ञानको सदा ग्रास करता है। यिक भावांको अनास्मीय जान उनमें हर्ष-विषाद न करना इस प्रकार पाप सानन्द ऐसे मरणका प्रयास करना श्री पुरुषार्थ है । जहाँ अनूकृत माधन ही उन्हें त्यागकर जो परम्परा मानस्तन्यपानसे बच जाओ। इतना सुन्दर अनुकूल साधन बनानेमें उपयोगका दुरुपयोग है। कल्याण अवमर हस्नगत हुमा, अवश्य इससे लाभ लेना। का पथ प्रान्मा है, न कि बाघ संत्र। यह बाह्य क्षेत्र नो अनारमशांकी टिम महत्व रखते हैं। चिरकालसे हमारे आत्मा कल्याणकाम जैसे जोवाको प्रवृत्ति बाह साधनांकी ओर ही मुम्प रही, भारमा ही कल्याणका मन्दिर है अतः पदार्योंकी फल उसका यह हुमा जो पायावधि स्वात्म-सुबम किबत् मात्र भी आप अपेक्षा न करें। अब पुस्तकद्वारा बञ्चित रहे। ज्ञानाभ्याम करनेकी आवश्यकता नहीं। अब पर्यायमें धोर परिश्रम कर स्वरूपके अर्थ मोक्षमार्गका अभ्यास मरण करना उचित है। अब उसी शान शस्त्रको रागद्वेष शनीपायुके निपेक पूर्ण होने पर मनुष्य पर्यायका वियांग के ऊपर निपात करनेकी पाचश्यकता है। यह कार्य उपमरण है। तथा श्रायुके सजावम पर्यायका सम्बन्ध सोही देशका है और न ममाधिकरणमें सहायक परिखतोंका है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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