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अनेकान्त
[किरण करते हैं । सर्वझके संभाव्यरूपको बतलाने में पहले उन (६) 'सवे-द्रव्य-पर्यायेषु केवलस्य' इस सूत्रके सब रूपोंकी चर्चा श्रा जानी चाहिये जिन्हें विभिन्न अनुसार केवलज्ञानका विषय सर्व द्रव्यों और उनकी सरवादी अपने-अपने मतानुसार अपनाए हुए हैं, सर्व पर्यायों तक सीमित बतलाया है, तब जो न तो फिर उनमें से कौन रूप कितने अंशोंमें संभाव्य है और द्रव्य है और न किसी व्यकी कोई पर्याय है उन कितने अंशों में संभाव्य नहीं है इसे अच्छे युक्ति- बहुतसी कल्पित आरोपित बातों तथा आपेक्षिक धर्मों बलके साथ प्रदर्शित करना चाहिये और अन्त में जैसे छोटा बड़ापन नाप-ताल आदि और रिश्ते-नातेकी स्पष्टीकरणाके साथ सर्वशके उस रूपको सामने रखना बातको केवली जानता है या कि नहीं? यदि नहीं चाहिये जो सब प्रकारसे संभाव्य एवं प्रबाध्य हो। नानता तो उसका सर्वज्ञान सीमिव हवा,और जानता स्पष्टीकरणमें निम्न विपयोंका स्पष्ट होना आव- है तो किस रूपमें जानता है और उस रूपमें जाननेसे श्यक है :
भी वह ज्ञान सीमित होता है या कि नहीं? . (१) 'सर्व जानातीति सर्वजः' इस मामान्य (७) जो इन्द्रियज्ञान, स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान निरुक्तिके अनुसार क्या सर्वज्ञ किसी एक ही द्रव्य और नय-निक्षेपाढिके रूपमें श्र तज्ञानके विषय अर्थात् या पदाथ को-जैसे जीवात्मा को-पूर्णरूपसे जानता ज्ञय हैं वे क्या सब केवली सर्वज्ञके ज्ञानके भी विषय है और इमी दृष्टिसे वह सर्वज्ञ है अथवासव द्रव्यो- एवं क्षय हैं ? यदि नहीं हैं तो ज्ञान-ज्ञानकेयोंकी पदार्थोंको वह जानता है, इस दृष्टि से सर्वज्ञ है ? विभिन्नता हुई तब सर्वज्ञ सम्पूर्ण शेयोंको जानने
(२) सर्व द्रव्य-पदार्थोंको वह जातिके रूपमें वाला कैसे कहा जा सकता है ? उसका महान ज्ञान जानता है या व्यक्तिके रूपमें यदि व्यक्तिके रूपमें अनन्तविषयोंको अपना साक्षात् विषय करने वाला जानता है तो क्या अलोक-सहित त्रिलोकवर्ती और होते हुए भी मर्यादित ठहरता है । इस विषयका विकालवर्ती सम्पर्ण जड-चेतन व्यक्तियां उसके ज्ञानमें निवन्धमें अच्छा ऊहापोह होना चाहिये। साथही. मलकती हैं ?
निबन्धको लिखनसे पहले स्वामी समन्तभद्रके देवागम, भत और भविष्यकालकी व्यक्तियां ज्ञान
युक्त्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र तथा श्री कुन्दकुन्दके दर्पणमें कैसे झलकती है, जबकि वर्तमानमें उनका
समयसारपर भी एक नजर डाल लेनी चाहिये। अस्तित्व ही नहीं?
२. समन्तभद्रके एक वाक्यकी विशद-व्याख्या (४) वह सर्व द्रव्य-पदार्थों को उनकी सम्पूर्ण
_ 'तत्व-नय-विलास पर्यायोंके साथ जानता है या उन सबको कुछ पर्यायोंको स्वामी समन्तभद्रका स्वयंभू स्तोत्र-गत एक पद्यजान लेनेसे भी सर्वज्ञता बन जाती है।
बाक्य निम्न प्रकार है___ (५ वह सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंकों "विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तद्युगपत् जानता है या कमशः जानता है ? यदि क्रमशः विशेषः प्रत्येक नियम-विषयैश्चाऽपरिमितैः । जानता है तो प्रथमादि समयोन जबतक जानकारी पूरी नहीं होती वह सर्वज्ञ कैसे कहा जा सकता है ? सदाऽन्योऽन्यापेक्षैः सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरुणा
और जानकारीके पूरा होनेपर यदि वह स्थिर रहती त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-विवक्षेतर-वशात् ॥" है और ज्ञान फिर सबको युगपत् जानने में प्रवृत्त होना इस पद्यमें सूत्ररूपसे जिनोपदिष्ट तश्व-विषयक है तो फिर शुरूसे ही उसकी युगपत् प्रतिमें कौन तथा नय-विषयक जो भारी प्रमेय भरा हुआ अथवा बाधक है, जबकि जैन-मान्यताके अनुसार मोह, संसूचित है उसे विस्तृत व्याख्याके द्वारा ऐसे सर्वाज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय नामक चार गीणरूपसे व्यक्त एवं स्पष्ट करके बतलाने की जरूरत घातिया कोंके अत्यन्त क्षयसे केवलज्ञानके रूपमें है जिससे संक्षेपमें जिन-शासनका सारा तत्त्व-नयसर्वज्ञता प्रकट होती है। ऐसी हालतमें सर्वशका विलास प्रामाणिकरूप सामने भाजाए और उस क्रमशः जानना कैसे बन सकता है।
(शेष पृष्ठ ७४ पर)