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________________ किरण २] ४१४)6. के दो नये पुरस्कार [४७ इस धर्मका अवलम्बन किया था। अनेक बंग-पविलयोंमे • बंगला रामायणोंमें उन अतिरिक्त कथानोंका समावेश तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई है। यह धर्म उस समय हुमा है। कितना व्यापक हो गया था यह इससे भली प्रकार जाना बंगाल में ब्राह्मण धर्मके पुनरुत्थानके पूर्वका जो भी जाता है। हमारे देश में त्याग और दयाधर्मका जो अपूर्व साहित्य यहाँ उपलब्ध है उससे यह भली भाँति सिख हो अभिनय हुमा है उससे इतिहास पाठक मात्र अवगत जाता है कि उसमें भक्ति पर नहीं पाकर्म पर ही अधिक हैं। अभी भी बंगाली वैष्णवोंके घरोंमें रसका नाम लेनेसे जोर दिया गया है अर्थात् जैसा करोगे वैसा पायोगे, ही नहीं 'काटा' शब्द ही उनके अभिधानमें नहीं है? मनुष्य अपना उद्धार स्वयं ही कर सकता है। सत्य, तरकारी 'काटने' को ये लोग 'बनायो' कहते हैं। जीव- शौच, संयम, दान, तप, बत, ब्रह्मचर्य, प्रतिज्ञापालन दयाकी नीति क्या उस श्रादि कालसे ही इस देश में इसी आदिको उस समयकी जनता धर्म' मानती थी। प्रकार चली आई है।" ये सब धार्मिक विश्वास जैनधर्मका पूर्वानुगत बाबू दिनेशचन्द सेनने लिखा है न कि जैन कवियों- प्रभावका घोतक है। परवर्ती कालीन साहित्यमें भक्तिको ने रामायणकी जिन कथाओंका वर्णन किया है वे एक प्रधानता और ब्राह्मणों का प्रभाव पाया जाता है कारण उसं समय बंगाल में अवश्य प्रचलित थीं, अतः इसीलिए समय जैनधर्म यहाँसे लुप्तप्रायः हो चला और ईश्वरभक्ति - - -..- . . - - - और ब्राह्मणोंमे ईश्वर तुख्य शक्तिके मानने वालोंकी + The Bengali Ramayanas p. 207 संख्या बढ़ गई थी। क्रमशः ४२५ रु० के दो नये पुरस्कार जो कोई विद्वान्, चाहे वे जैन हो या जैनेतर, जो सज्जन किसी भी विषयके पुरस्कारको रकममें निम्न विषयों में से किसी भी विषयपर अपना उत्तम अपनी ओर से कुछ वृद्धि करना चाहेगे तो वह वृद्धि निबन्धाहन्दी में लिखकर था दसरी भापामें लिखे यदि २५) से कमकी नहीं होगी तो स्वीकारकी जायगी जाने पर उसे हिन्दीमें अनुवादित कराकर भेजनेकी और वह बढ़ी हुई रकमभी पुरस्कृत व्यक्तिको उनकी कृपा करेंगे उनमें से प्रथम विषयके सर्वश्रेष्ठ लेखकको भोरसे भेंटकी जायगी। पुरस्कृत लेखोंको छपाकर १२५) रुपये और दूसरे विषयके सर्वश्रेष्ठ लेखकको प्रकाशित करनेका वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टको पूर्ण अधि३००) रुपये बतौर पुरस्कारके वोरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी कार होगा। जो विद्वान किसी भी निबन्धको लिखना माफत सादर भेंट किये जाएंगे। जो सज्जन पुरस्कार चाहर अपन नाम चाहें वे अपने नाम तथा पतेकी सूचना काफी समय लेनेकी स्थितिमें न हों अथवा उसे लेना नहीं चाहेंगे पहलेसे कर देनकी कृपा करें, जिससे आवश्यकता उनके प्रति दूसरे प्रकारसे सम्मान व्यक्त किया होनेपर निबन्ध-सम्बन्धी काई विशेष सूचना उन्हें दो जायगा। उन्हें अपने इष्ट एवं अधिकृत विपयपर जा सके। विषयों के नाम और तत्सम्बन्धी कुछ लोकहितकी दृष्टिसे निवन्ध लिखनेका प्रयत्न जरूर सूचनाएं इस प्रकार हैं:करना चाहिये । प्रथम विपयका निबन्ध फुलस्केप १. सर्वज्ञका संभाव्यरूप साइजके २५ पृष्ठों अथवा ८०० पंक्तियोंसे कमका इस निबन्धमें सर्वज्ञकी सिद्धिपूर्वक सर्वज्ञके उस नहीं होना चाहिये और उसे ३१ दिसम्बर सन् १६५३ रूपको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत है जो सब तक विज्ञापकके पास निम्न पतेपर रजिस्ट्रीसे भेज प्रकारसे संभाव्य हो। सर्वज्ञकी सिद्धिमें उन सब देना चाहिये । यदि सब लेखक चाहेंगे तो इस समया- शंकाओं तथा युत्तियोंका पूरा समाधान होना चाहिये वधि में कुछ वृद्धि भी की जा सकेगी। जिन्हें सर्वज्ञाऽभाववादी सर्वज्ञताके विरोधमें प्रस्तुत
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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