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________________ अनेकान्त [किरण २ ४६ चार किया नमें जनसमा .. . खष्ट्रीय सक्षम शताब्दी तक बंगालमें जैनधर्म प्रचलित था पुद, राढ़ और ताम्रलिप्ति प्रदेशों में चातुर्याम धर्मके प्रचारइसमें कोई भी सन्देह नहीं है। और इन्हीं जैनोंने ही पूर्वक कल्पसूत्रकी शिक्षा दे यज्ञ और कर्मकाण्डमय ब्राह्मण प्राचीन बंगालमें सर्व प्रथम और मौर्यकाल में भार्यसभ्यता- धर्मकी विद्रोह घोषणा की। इसीलिये हिन्दुओं द्वारा यह का प्रचार किया था। देश निषिद्ध हुा । जो मगध और कलिंग प्रभृति देश मौर्यकाल में पुण्ड्व नमें जैनधर्म अतिप्रबल था; यह भारतके इतिहासके सर्वश्रेष्ठ गौरव हैं उनको भनार्य बात दिव्यावदानकी कथासे अवगत होती है। इसमें लिखा घोषणा करना घोर असूयाका फल है।" है कि यह जानकर कि जैनोंने निम्रन्थके पॉय पढ़ती हुई 'हिन्दुओंने बौद्धधर्म और जैनधर्मको केवल नष्ट बुद्धकी एक प्रति मूर्ति चित्रितको है. राजा अशोकने सर्व कर ही छोड़ नहीं दिया, वे दोनों हाथोंमे बौद्ध और जैनश्राजीवकों (जैनों) की हत्या कर देनेका आदेश दे भण्डारीको लूट कर समस्त लुठित व्यके ऊपर निज निज दिया और 10. प्राजीवक एक दिनमें वध कर दिये नामांकरकी छाप देकर उसको सर्वतोभावसे निजस्व कर गये । लिया । हिन्दुओंके परवर्ति न्यायदर्शन, धर्मशास्त्र प्रभृति रंगालके प्रसिद्ध साहित्यक वा. दिनेशचन्द्रसेनने समस्त विषयाम इस लूटका परिचय है-कहीं भीत्र स्वीकार नहीं है। इस प्रकार हिन्दुओंने बौद्ध और जैन) अपने "वृहत बंग" [पृष्ठ ६-११] में लिखा है कि कृष्णाके धर्मके इतिहासका विलोप साधन किया है। आगे चल ज्ञाति २२वें तीर्थकर नेमिनाथने + अंग बंग प्रभृति देशमें कर दिनेश बाबूने (पृष्ट ३१६ ) पर लिखा है कि हमारा भाकर ब्राह्मणधर्मके प्रति विद्रोहके भावकी शिक्षा दी। उन्होंने इन सब देशांमें जैनधर्मका विशेषकर प्रचार किया देश (बंग) एक हजार या बारहसौ वर्ष पूर्व बौद्ध और एक समय जैन और बौद्ध धर्मके बान [बाण ] से पूर्व जैनधर्म की बदस्तूर श्राढ़त थी; किन्तु उस सम्बन्धमें हम भारत वह गया था। सुतरां ब्राह्मणोंने इन दोनों धर्मों- लोग बिल्कुल अज्ञ और उदासीन हैं। जैन और बौद्ध को इस देशमे निकाल देनेके लिए अनेक चेष्टाएँ की। देवताकि विग्रह बंगालके गाँव-गाँवमें पाई जाती हैं कितु अस्तु, माह्मणोंने अपने प्राचीन शास्त्रोंमें अनेक श्लोक वे बौद्ध व जैनधर्मके अन्तर्गत हैं यह कब किसने विचार प्रक्षिप्तकर समस्त पूर्व भारतको अत्यन्त लांच्छित कर किया है । किम्मी स्थान पर दिगम्बर तीर्थंकर शिवरूपसे पूजित हो रहे हैं। केवल बौद्ध धर्मके प्रति ही नहीं जैनोंके दिया था। अंग, बंग, कलिंग, मगध और यहाँ तक। के ली . प्रति भी ब्राह्मण विद्वष प्रचलित था। हस्तिनापीड्य कि सौराष्ट्र पर्यन्त वृहत् जनपदको इन्होंने आर्यमण्डलीके बहिभूत कहकर निर्देश किया और यह व्यवस्था दी मानोप न गच्छेज्जैन मन्दिरम् ॥' इस एक ही वाक्यसे नजान वह विद्वष विशेष भावसे व्यक्त हो जाता है। दक्षिणात्य प्रायश्चित्त कर स्वदेशमें लौट सकेंगे। ययाः शैवाने बौद्ध और जैनोंके मस्तक छेदन कर किस रूप निष्ठुर "अंग-बंग-कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधेषु च। भावसे उनके मतका ध्वंस किया था यह स्थानान्तर पर तीर्थयात्रा धिना गच्छनः पुन.सस्कारमहति ॥" लिखा जावेगा। एक समय जिन सर्व स्थानों पर ऋषियोंने तीर्थस्थान किया 'जेन और बौद्धोंके अधिकार काल में प्राणीहिंसा मुलक था, परवति युगमें वे निषिद्ध राज्य परिगणित और परि- यज्ञादि बहु परिमाणमें मुक्त होगये थे । हमारा यह वृहत् स्यक्त क्यों हुए इसका उत्तर यह है कि "जैन और बौद- बंग पहिलेसे हो नव ब्राह्मण नेता कृष्णका विद्वषी था। धर्मकी हवाने बह कर हिन्दुओंकी दृष्टिमें इस देशको यहाँ कृष्ण विरोधी दलकी चेष्टासे यज्ञाग्नि बहुकालके लिये दूषित कर दिया था। तीर्थंकर चुवामणि पार्श्वनाथने निर्वापित होगई थीx x Divyavadana Ed. by Co well and "एक समय स्वयं पारवनाथने इस देशमें बहुवरसर धर्म प्रचार किया था । एवं इस देशमें विशेष कर सुन्दरNeill p427. + नेमिनाथ कृष्णके संपर्क भ्राता (ताडके लड़के थे) ले. वन विक्रमपुर और मानभूमके अंचल पर अनेक लोगोंने 8 पारवनाथ भगवान महावीरसे २५० वर्ष पूर्व हुए थे। x महत् बंग पृष्ट ४४ ।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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