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भनेकान्त
[किरण
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नहीं किया है। कहीं कहीं कुछ लोगोंने कुछ टाइधर मानसिक और शारीरिक गंदगीका होना स्वाभाविक है। दिखखाई है पर उनके विचार उपयुक्त आधार पर नहीं अतः इसलिए कि हम सचमुच अपने स्वस्थ, शुद्ध जीवन होनेसे अपूर्ण, दोषपूर्ण अथवा हालत रह गए हैं। विभित पा सकें, अपने चारों तरफके वातावणको शुद्ध करना परम धर्मावलम्बियोंने भी स्यावाद या अनेकान्तकी सहायता न आवश्यक है-जो केवल स्यावाद अथवा अनेकान्तका बी इससे उनके पनि या विचार भी एकांगी, दोषपूर्ण, उपयुक्त प्रयोग करके 'श्रतज्ञान' द्वारा जरूरी जानकारी अपूर्ण या एकदम गलत रह गए। मूलतत्वोंके मूल तक प्राप्त करके अपने शाप द्रव्यों और तत्वोंका पूरा ज्ञान पहुँचना तो केवल स्थाबाद द्वारा ही संभव था जिसका उपबन्ध करने और उस मुताविक प्राचरण करनेसे ही प्रयोग करके जैन गुरुषों या तीर्थकरोंने इन तत्वोंका विकास हो सकता है। अनेकान्तको अपनाए विना किसीकी गति किया । वगैर इन तत्वोंके जानकारीके मानव या जीवधा- नहीं। आज जो हर तरफ हर एककी दुर्गति नजर मा रियोंकी पूरी जानकारी संभव नहीं है। इन तत्वोंके ज्ञान रही वह अनेकान्तके प्रभावके ही कारण है। विना सारा ज्ञान ही अपरा रह जाता है । इसी अधूरे शान- अनेकान्तके समर्थक जैन विद्वान भी अनेकान्त और के आधार पर संसारकी व्यवस्थाओंका निर्माण हुआ है स्याहादकी चर्चा प्रायः शास्त्र-चर्चा तक ही सीमित रखत जिसका फब कि संसारमें हर जगह रक्तपात, लबाई- हैं. उसे जीवन में या राज रोजके पाचरण-व्यवहार में उताझगडे, दुख-दारिद्रय फैले हुए है। जब तक तत्वोंकी ठीक- रनेको चेप्या नहीं करते । यही विडम्बना है। जैनियोंने ठीक जानकारी या ज्ञान लोगोंमें, संसारमें नहीं फैलता या अपने तत्वोंकी जानकारी और अपने शुद्ध ज्ञानकी वार्ताको पूर्ण रूपसे इसका व्यापक विस्तार था विकास नहीं होता पोथियामें इस प्रकार सात सात येप्टनोंके भीतर बन्द रखा संसारसे अव्यवस्था, आंधली, लूट-मार, अपहरण छल, था कि बाहर वाले कुछ जान ही नहीं पाए । बाहर वाले पर झूठ, हिंसा इत्यादि दूर नहीं हो सकते।
तो अलग ही रहे स्वयं जैन लोग भोर जैन विद्वान सच्चे माधर्य तो यह है कि विज्ञानके इस तर्क-बुद्धि-सत्यके ज्ञानसे दूर होते गए और ज्ञान दर्शनका सादा मार्ग को युगमें भी स्यावाद जैसी महान् महत्वपूर्ण तर्कशैली, कर कोरे क्रियाकार और अधिकतर पाखंडमें लीन होते पद्धति, रीति या सिद्धान्तका प्रचार नहीं हुश्रा । आधुनिक चले गए । धर्मका अपभ्रंश तथा सच ज्ञानका प्रभाव विज्ञान तो स्वयं ही अनेकान्तमय, या अनेकान्तसे परिपूर्ण सब जगह हो गया। और तस्वकी गहरी जानकारी लुप्त है अथवा अनेकान्तकी देन है-पर इसी अनेकान्तका प्राय हो गई। जिन्होंने पोथियोंको पढ़ कर या किसीसे सुन प्रयोग अबतक संसारके विद्वान मानवके साथ और मानव- कर कुछ जाना भी तो उनका ज्ञान थोडा या उपरी होकर जीवन तत्वकी जानकारीके लिए ठीक तौरसे नहीं कर ही रह गया और द्रव्यों तथा तत्वोंका इस तरह केवल पाए हैं, जिसके कारण ही सारा रगड़ा-मगदा या दुर्य- उपरी ज्ञान प्राप्त करके ही उन्होंने अपनेको 'सम्यक्' वस्था है। रोज-रोजके साधारण नित्य नैमित्तिक कार्यों में समझ लिया, जो उनके दोहरे पतनका कारण हुआ। भी बनेकान्त रूपसे जानकारी रखकर प्रवर्तन करनेवाला व्यक्तिके पतनसे समाजका भी पतन हुना और अवांछअधिक सफल रहता है। और उच्च विज्ञान, ज्ञान और कता हर जगह हर बातमें आवश्यकता मान कर घुसती गई। दर्शन इत्यादिमें तो यह अनिवार्य हो जाता है। दुःख तो जैनदर्शन सिद्धान्त और धर्म किसी भी बात या विषयको यह है कि अनेकान्त पा स्याद्वादको जैनियोंने संसारकी निर्शय या परीक्षा किये बगैर स्वीकार करनेको मना करता संपदा न होने देकर अपनी बनाकर रख ली। अपने है, पर आज लोग दूसरोंकी देखा देखी यही अधिकतर करने कल्याणके लिए तथा संसारके कल्याणके लिए भी इसके लगे हैं, जो विद्वान नहीं है उन्हें तो विद्वानांके आदेश सर्वत्र व्यापक प्रचारकी बढ़ी भारी अनिवार्य आवश्यकता और मार्गसे चलना ही है, वे तो परीक्षा लेने या परीक्षा है । संसारका कल्याण होनेसे हो अपना भी वास्तविक करनेकी योग्यता नहीं रखते। पर विद्वानोंको तो तर्ककल्याण हो सकता है। अपने चारों तरफका वातावरण म्याय और बुदिपूर्वक परीक्षा लेकर ही स्वयं कोई मान्यता शुद्ध होनेसे कोई व्यक्ति शुद्ध वायु पा सकता है और माननी और धारणा बनानी चाहिए एवं दूसरोंको भी ऐसी स्वस्थ रह सकता है। गंदे वातावरण या परिस्थितियों में ही सीव या सलाह देनी चाहिए। पर भाजके अधिकांश