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________________ - प किरण १] काँका रासायनिक सम्मिश्रण [१७ विद्वान प्रायः प्रमाद और अपनी विद्वत्ता या पांडित्यके बनाए या लिखे गए थे। मांजके विकशित ज्ञान-विज्ञानके अभिमानमें इतना भूल जाते हैं कि अप्सल-नकलमें विभेद युगमें अब इन्हें एक नई वैज्ञानिक शैली या पद्धतिसे पुनः नहीं कर पाते । फिर सबके उपर वर्तमान कालम धनकी निर्माण करने, रचने, बनाने, लिखने, प्रतिपादित वा सत्ता और प्रभुता सबसे महान हो गई है। धनिक जो प्ररूपित करनेकी परम पावश्यकता है। हमारे विद्वान योग चाहता है वही पण्डित अच्छा, सही, और उत्तम सावित जो टीकाएँ करते या टिप्पणियां देते या विवेचना, समाकर देता है। इसका नतीजा हुआ कि ममाजमें ज्ञानका बोचना इत्यादि करते कराते हैं वे सब भी पुरानी रूदिमाई सच्चा विकास एकदम रुक गया और ज्ञान विकास जैसे पद्धतिको लिए हुए ही होते हैं-उनमें समयकी जरूरत और महाननम पुण्य-कार्यको छोड़ कर लोग केवल दूसरे निम्न मांगके अनुसार सुधार होना जरूरी है। और तो और जैन धामिक साधनांकी वृद्धिका ही महत्ता देने लगे और वे ही पंडितों की शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही है कि पंडित बोग महत्तम पुण्यकार्य गिने जाने लगे। जबकि “जैन" शब्द विद्वान बन जाने पर भी संकुचितता नहीं बोल पाते और और जैनतीर्थकरोंके उपदशाका सर्वप्रमुख ध्येय शुद्ध ज्ञान अनेकान्त' का उनका अपनाना ठीक वैसा ही होता है जैसे का विकास स्वयं करना और दमरीम कराना यही मानव हाथीक दति खानेके और दिखलानेके और.सेपर कल्याण और स्वकल्याणकी कुन्जी समझी या मानी गई करना होगा, तभी हम उपयुक्त सुधार लोगोंको मनोवृत्ति, है। मन्दिर, मूर्ति पूजन इन्यादि तो ज्ञानलाभको भार विचार और भावनाओम लाकर वह ठीक वातावरणहर काम और बातक लिए पैदा कर सकते हैं जिसे स्वस्थ कहा भावांकी शुद्धता तो या एक दो फीसदी इन क्रियाकलापों- जा सकता ह पार जा समाज पार व्याचका ठाक सहा महोती है पर बाकी निन्यानवे फीसदी शुद्धि तो शुद्ध सच्ची उन्नति करने में प्राधार, कारण और सहायक होगा। ज्ञानकी वृद्धि द्वारा ही उत्तरोत्तर हो सकती है। मुनि, तभी सच्च जैन सिद्धान्तका प्रकाश व्यापकरूपमें हर ओर त्यागी, ब्रह्मचारी और विद्वानका समागम भी इसी निमिन- फेले भोर विखरेगा जो सचमुच मानव कल्याणकी वृद्धि में महत्वपूर्ण माना गया है, नहीं तो ये सब भी स्वयं और विस्तार करेगा। इसके लिए बच्चों और तत्वोंका शुद्ध केवल एक फीसदी ही लाभ देने वाले हैं। बाकी निन्यानवं अनेकान्तात्मक और व्यावहारिक ज्ञान परम जरूरी है। फीसदी लाभ तो स्वयं ज्ञान उपलब्ध करने से ही हो सकता हमारे विद्वानोंको एक बड़ी भारी कठिनाई भी है। है। आज हम यही पाने है कि लोग इस एक फीमदीमें वह यह है कि उनका माधुनिक विज्ञानसे सम्बन्ध नहीं ही इतने लीन हांगए हैं कि बाकी निन्यानवे फीसदी उनके रहा है। द्रव्यों और तत्वोंकी पूरी महत्ता प्रकृति और लिए या तो गौण हो गया है या उसे वे भूल ही बैठे हैं। प्रभाव समझनेके लिए अथवा उनकी क्रिया प्रक्रियादिमें यह नो विद्वानों और जानकार गुरुत्रोंका काम है कि लोगों- एक अन्तरष्टि होने अथवा एक प्रत्यक्ष दर्शन-सा अनुभव का ध्यान पुनः इधर आकर्षित करें-तभी उनका भी सच्चा प्राप्त करनेके लिए प्राधुनिक भौतिक या रासायनिक विज्ञानकल्याण हो सकता है और जोग भी 'भव्यजन' कहे जाने के कुछ प्रारम्भिक एवं मौखिक तथ्यों या सिद्धान्तोंकी जानलायक सचमुच धीरे-धीरे होते-होते हो जायगे । इतना ही कारी आवश्यक है। आज कल तो विज्ञान इतनी अधिक नहीं जैनधर्म तो सब जीवोंको समान समझने और समान उन्नति कर गया है कि अब यह सम्भव हो सका है कि दर्जा देने वाला 'समतामय' धर्म है पर इसमें भी लोगोंने हम अपने द्रव्यों और तत्त्वों या पदार्थोंकी सत्यता, समीप्रमाद और प्रज्ञानवश या अपनेको गलनीसे सम्यष्टि चीनता और शुद्धताका प्रमाण जोगोंको ठीक ठीक दे समझर ऊँच नीच, छुन अछुत, सवर्ण अवर्ण इत्यादिके सकें। पहले तो लोग समझते थे कि यों ही संसारकी भेद भाव खड़े कर दिये हैं-यह जैन तत्त्वा. सम्यक दर्शन उलझी समस्यायोंका समाधान करनेके लिए ही किसी शब्द और तीर्थकरोंकी शिक्षाका सबसे बड़ा अपमान है। तरह जैन गुरुयोंने ये बातें तर्कके जोर पर मन गदत निकाल इसका परिमार्जन होना सबसे पहले जरूरी है। जी हांगी-पर अब विज्ञानमे यह पूर्ण-रूपसे सावित हो - हमारे शास्त्रोंमें वर्णित बाने एक ऐसी पद्धति या शैली- गया है कि ये सिद्धान्त मनगदंत या ग़लत न होकर में जिम्बी गई है कि उसे हम बहुत पुरानी कह सकते हैं ये ही केवल मात्र सही, ठीक और सत्य है। जो उम ममयके लिए ठीक थीं जब ये शास्त्र प्रारम्भमें अब जरूरत है कि हम अपने सिद्धान्तोंको और दूसरी
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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