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________________ १८ ] अनेकान्त [किरण १ - - बातोंको जो प्राचीन पद्धतिसे लिखी गई थीं या कही गई है, जीवधारीके सारे क्रिया कलाप किस प्रकार पुद्गलके थीं उन्हें नई वैज्ञानिक पद्धति, शैली और भ्याख्याके साथ रूपी शरीरमें परिवर्तनादि द्वारा ही संचालित होते हैं, पुनः प्रतिपादन करें और तब लोगोंका ध्यान उनकी और अथवा पाश्रव, संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष इत्यादि सचमुच इतना आकर्षित होगा जैसा पहले कभी नहीं । मैंने किस प्रकार घटित होते रहते हैं एवं उनका आधुनिक संक्षेपमें इस बातको चेष्टा की है कि ऐसा दृष्टिकोण हमारे वैज्ञानिक प्राधार क्या, क्यों, कैसे है; क्या सचमुच 'कर्म' विद्वानों में उत्पन्न हो जाय । मैंने एक लेख 'जीवन और पुद्गल जनित ही है ? आत्माका और कर्मोंका सम्बन्ध विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य' शीर्षकसे लिखा जो 'अनेकान्त किस प्रकारका है और उसे हम अाधुनिक विज्ञान द्वारा वर्ष १०, किरण ४-५ (अक्टूबर नवम्बर ६ )किस प्रकार साबित कर सकते हैं या किस तरहसे स्वयं प्रकाशित हुआ । मेरा विश्वास था कि इस नए दृष्टिकोण अनुभृत कर सकते हैं; जैनियोंके ये तत्व आज कलके को या प्रतिपादन-शैलीको जैन विद्वान ध्यानपूर्वक अप- विज्ञान द्वारा प्रतिपादित और निश्चित सिद्धान्तास कितना नावेंगे, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कारण सोचने पर साम्य रखते हैं और यदि हम उनका वर्णन, व्याख्या वर्तयही नतीजा निकलता था कि ये विद्वान अधिकतर आधु- मान वैज्ञानिक पद्धति शैली दृष्टिकोण या आधारसे करें तो निक विज्ञानके ज्ञानसे परिचित नहीं होनेके कारण ऐसी मानवताका कितना बड़ा कल्याण कर सकते हैं ? इत्यादि । बातों पर ध्यान नहीं देते अथवा पुरानी पद्धतियोंमें पैदा शुद्ध सच्चा सही ज्ञान ही मानवताका कल्याण सञ्च रूपमै हुए, पले, पढ़े और बढ़े ये लोग कुछ नयापन या नई कर सकता है और यह ज्ञान जैनियोंके आत्मविज्ञान, कर्म रीतियाँ स्वीकार नहीं करते अथवा ऐसी बातोंका मनन सिद्धान्त और आधुनिक भौतिक विज्ञानके मेल समन्वय करने और समझनेके बजाय उलटे शशंक दृष्टिसे देखते हैं और सहयोग द्वारा ही ठीक प्राप्त हो सकता है और इस मैंने और भी कुछ छोटे छोटे बेख हिन्दी और अंग्रेजीके पूर्ण समन्वयान्वित और सच ज्ञानका बहु व्यापक विकास इसी प्रकारके लिखे ताकि विद्वानोंका ध्यान वर्तमान समयकी और संसारमें आधुनिकतम उपायों द्वारा अधिकसं अधिक इस आवश्यकता या मांगकी ओर जाय । वे लेख केवल प्रचार और विस्तार करना हमारा कर्तव्य है-अपने कल्याण इस वैज्ञानिक दृष्टिकोणकी तरफ खोगांका ध्यान आकषित के लिए भी और मानवताके कल्याणके लिए भी। पाशा करनेके लिए ही लिखे गए थे वे पूर्ण नहीं थे न हो ही है कि जिज्ञासु विद्वान इधर ध्यान दंगे। (क्रमशः) सकते हैं। मानव व्यक्तिरूपसे पूर्ण नहीं है न उसकी जीवन और विश्वके परिवर्तनांका रहस्य' - लेख शपियां हो पूर्ण हैं इससं अकेला किसी का किया कुछ भी 'अनेकान्त' वर्ष १०-किरण ४-५ अक्टूबर नवम्बर १९४६ पूर्ण नहीं हो सकता, पूर्णता तो तब आती है जब अनेक में प्रकाशित हो चुका है - पुस्तक रूपमें भी छपा था। लोग मिल कर विभिन्न रप्टिकोणोंसे अपने अपने विचार पत्रिका तथा पुस्तक दोनों-संपादक अनेकान्त, दरियाव्यक्त करते है और तब हम किसी बात, विषय, मसला, गंज दिल्लीसे मिल सकते हैं। 'विश्व एकता और शान्ति'समस्या या प्रश्नका 'भनेकान्त रम' या बहुमुखी समा- 'अनेकान्त' वर्ष किरण ७-८, सितम्बर, अक्टूवर १९१२ धान पाते हैं और तभी हम उस विषयके ज्ञानमें अधिका- में प्रकाशित हो चुका है। शरीरका रूप और कर्म-'जैन धिक पूर्णवाको पहुँचते जाते हैं। वे मेरे लेख हैं- सिद्धान्त भास्कर' के जून १९५० के अंकमें प्रकाशित हुआ (1) 'जीवन और विश्वके परिवर्तनोंका रहस्य', (२) है।'The Three Jewels' SoulConsciouविश्व एकता और शान्ति, (१) शरीरका रूप और कर्म, sness and Life' at Bhagwan Rishahba, () The Three Jewels (रत्नत्रय) २) Soul, His Atomic Theory and Eternal VibiConscious, Life,(6) Rhagwan Bishabh ations' नामक लेख क्रमशः Voice of Ahisa. His Atomic theory and Eternal Vibra- नामक अंग्रेजी पत्रिकाके सितम्बर अक्टूबर १९५१ और tions | 'यह वर्तमान लेख कोंका रासायनिक सम्मि- जनवरी फरवरी १९५२ के अंकोंमें प्रकाशित हो चुके हैं। श्रण' भी उसी वैज्ञानिक विचारधाराका ही एक और छोटा २,३,४और ५ ट्रैक्ट रूपमें भी छपे हैं और संचालक, प्रयास है। इसमें यह दिखलाया गया है कि पुद्गल किस अखिल विश्व जैन मिशन, पो. अलीगंज, जि० एटा, प्रकार भारमाके गुणोको नियन्त्रित या सीमित कर देता उतर प्रदेश से पत्र भेजकर अमूल्य मँगाए जा सकते हैं।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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