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बंगीय जैन पुरावृत्त
(श्री बा. छोटेलाल जैन-कलकत्ता बंगदेशमें मेरा निवास हानेके कारण इच्छा हुई कि शंकर-विजय नामक पुस्तककी निम्नलिखित कथा पढ़नेसे प्रागैतिहासिक युगमे प्रारम्भकर वर्तमान कालतक जैनोंका भली प्रकार जाना जा सकता है:सम्बन्ध इस बंगदेशसे क्या रहा है, इसका अनुसन्धान "दुष्ट-मतावलम्बिनःबौद्धान जैनान असंख्यकरूं। किन्तु सन् १९३७ में इसके उपादान-संग्रहमें प्रयत्न किया तो हतोत्साह ही होना पड़ा। कारण इस सम्बन्धकी जितनी सामग्री उपलब्ध है वह अत्यल्प है। तेषां , शिरांसि परशु-भित्विा बहुषु उदखलेषु
नूनन अाविष्कारके प्रकाशमे प्राचीन इतिहासका अंध- निक्षिप्य-भ्रमणैश्चूर्णीकृत्य वं दुष्टमतध्वंसकार दिनोंदिन दूर होता जाता है। यह अल्प उपादान भी माचरन निर्भयो वर्तते ।" किसी न किसी दिन इतिहास निर्माणमे सहायक अवश्य
इन कहर पंथियोंने वेदबाह्य सभी धर्मावलंबियोंको होगा, यही विचारकर इस लेखको लिख रहा हूँ।
अम्पृश्य लिख दिया । पराशर स्मृतिकी टीकामें माधवातिहासिक युगमें गौड, मगध, अंग और बंगका चार्यने "चनुविंशतिमतसंग्रह" का निम्न लिखित श्लोक इतिहास स्वतन्त्र नहीं है और ग्वृष्टाब्द (ईस्वी सन्) के उद्धृत किया है उससे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है। प्रथम छः सौ वर्षमे मगधकी ही प्रधानता थी। गौड़ और बंगके कभी कभी स्वतन्त्र हो जाने पर भी यह स्वतन्त्रता
तनिकर्म स्थान-द्विजान स्पृष्ट्वा सचेलो जलमाविशेषण अधिक समयाक स्थायी नहीं हुई । इलिये यह (कहना) अनुचित नहीं होगा कि बंग देशका इतिहास भारतवर्षक श्रीमान् वा. दिनेशचन्द्रसेनने अपने 'वृहत्बंग' में इतिहासका एक क्षुद्र अंश है।
लिग्बा है कि "भारत युद्ध के प्राक्कालमें पूर्व भारत अनेक
परिमाणों में नवप्रवर्तित ब्राह्मण्य धर्मका विरोधी हो गया भूमिका
था। इस विरुद्धताने उत्तरकालमें बौद्ध और जैन प्राधान्य विशाल साम्राज्यांके ध्वंसके साथ-साथ बड़े बड़े प्रासाद, युगमें पूर्व भारतको कई एक शताब्दीकाल पर्यन्त नवयुगके मन्दिर, मठ, शास्त्रभण्डार आदि भी नष्ट हो गये। जन- हिन्दगणके निकट वर्जनीय कर दिया था। हिन्दू विपके विहीन ग्रामादि-मृत्तिकादिसे आच्छादित होनेके कारण कारण ही हम इस देशके प्रकृत इतिहास सम्बन्धमें इतने विलुप्त हो गये । इस प्रकार इतिहास नमसाछन होगया। अज्ञ थे। कृष्णकी प्रबल सहायतासे जो पाहण्य धर्मका दमरे, जैन और बौद्ध इतिहासको ब्राह्मणांने जान बूमकर पुनरुत्थान हुआ था, उसी पुनरुस्थित हिन्दूधर्मने जैन
और घोर शत्रुता धारणकर इस तरह लुप्त कर दिया कि बौद्धगणके उज्जवल अध्यायको इस देशके इतिहासके इनके राज्यमे किस समय में इन दो प्रधान धर्मावलम्बी पृष्ठोंसे बिल्कुल मिटा दिया।" सम्प्रदायांकी कैसी पाश्चर्यजनक लीला हुई थी उसका प्रथम तो बंगदेश नदी मात्रिक है। इसलिये यहां चिन्हमात्र किसी प्रकार रहने न दिया। इसीलिये हमारे मनुष्यकी कीर्ति अधिक दिन रह नहीं सकती; दूसरे इस प्राचीन इतिहासोद्धारका पथ अन्धकारमय है। तीसरे भूमिमें पत्थरके गृप और विग्रह प्रस्तुत करना सहज नहीं। मुसलमानोंने भी जैन, बौद्ध और हिन्द धर्मायतनाके यहां बहुत दूरसे और बहुत खर्चसे पत्थर जाना पड़ता विलोप-माधनमें कुछ उठा न रक्खा था।
था। इसीलिये जब बहुत कष्ट और व्यय निर्मित मन्दिर किस भीषण अत्याचारके साथ ब्राह्मणांने जैन और .
और मूर्तियाँ अत्याचारों द्वारा खरिडत होने जगी तबसे बौद्ध धर्मको भारतसे निमल करनेकी चेष्टा की थी वह • Bib. Ind. Vol. I p. 259.