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आर्य और द्रविड़ संस्कृति के सम्मेलन का उपक्रम
किरण ११ ]
माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाले प्रकाशित मूलाचार के अन्त में जो पुष्पिका पाई जाती है उसमें भी मूत्राचारको कुरंदकुदाचार्य प्रीत लिखा है। वह पुष्पिका इस प्रकार है :'इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृतः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमहस्थ ।' इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है ।
• कुन्दकुन्द के समयसार, प्र.चनसारादि ग्रन्थोंके साथ मूलाचारका कितना सादृश्य है, यह पृथक् लेख द्वारा प्रगट किया जायगा | यहाँ पर इस समय इतना ही कहना है कि मूलाचारको सामने रखकर कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंका गहरा अभ्यास करने वाले पाठकोंसे यह भविदित नहीं रहेगा कि मूलाचार के कर्ता प्रा० कुन्दकुन्द ही हैं। ऐसी हालत में प्रज्ञाच पं० सुखलाल जोका या पं० परमानंदजी शान्त्रीक कथन कितना पार गर्भित है, यह सहज ही जाना जा सकता है। यहाँ पर मुझे यह प्रकट करते हुए प्रसवता
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होती है कि पं० परमानन्दजीको अब अपने उस पूर्व कथनका आग्रह नहीं है, वे कुछ पहलेसे ही मूळाचारको एक अति प्राचीन मौलिक ग्रन्थ समझने लगे हैं। पाँचवे श्रुतकेवली भद्रबाहुके समय में होने वाले दुर्भिस मे जो संघभेद हो गया और इधर रहने वाले साधुग्रोके आचार-विचार में जो शिथिलता भाई, उसे देखकर ही मानों प्रा० कुन्दकुन्दने साधुओंके आचार प्रतिपादक मूल आचारांगका उद्धार कर प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की, इसी कारण से इस प्रन्थका नाम मूलाचार पड़ा और तदनुसार साधु- संघका प्रवर्तन कराने से उनके संघका नाम भी मूल संघ प्रचलित हुआ, ये दोनों ही बातें 'बट्टराइ रिय' नामके भीतर छिपी हुई हैं और इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मूलाचार अति प्राचीन मौलिक प्रन्ध है और उसके रचयिता एकाचार्य नाम से प्रख्यात भा० कुन्दकुन्द ही है।
आर्य और द्रविड़ संस्कृतिके सम्मेलनका उपक्रम
( बाबू जयभगवानजी एडवोकेट )
द्रविड़ संस्कृतिकी रूप रेखा
भारतको हिन्दू संस्कृति दो मुख्य संस्कृतियोंके सम्मेनसे बनी है, इनमें एक वैदिक आर्योंकी आधिदैविक संस्कृति और दूसरी द्राविड़ लोगोंकी आध्यात्मिक संस्कृति । परन्तु वास्तव में यदि देखा जाय तो हिंदू संस्कृतिका अधिकांश भाग बारहमे चौदह श्राने तक सब अनार्य है। भार तीयांका खान-पान (चावल, भात, दाल, सत्त ू, दूध, घी, गुड़, शक्कर आदि ) वेषभूषा (धोती, चादर, पगड़ी) रहन सहन. ( ग्राम, नगर दुर्ग, पत्तन ) आचार व्यवहार ( अहिसात्मक - सभी के अधिकारों और सुभीताम्रका आदर करना ), जीवन आदर्श - ( मुक्तिकी खोज), धाराध्यदेव ( त्यागी, तपस्वी सिद्ध पुरुष ) धर्म मार्ग - (दया, दान, दमन, व्रत, उपवास ) पूजा-भक्ति तीर्थ गमन आदि सभी बातें द्रविड़ संस्कृतिके सांचे में ढली हैं १ ।
भारतीय व वैदिक साहित्यके अनुशीलनसे तथा बघु १. (अ) अनेकान्त वर्ष १३ किरया ४-२--लेखक द्वारा जिलित 'भारतकी अहिंमा संस्कृति' शीर्षक लेख । (घा) बंगाल रावल एशियाटिक सोसाइटीकी पत्रिका भाग १६ संख्या १ वर्ष ई० १३५० में प्रकाशित
एशियायी पुरातत्व व सिन्ध और पंजाबके मोहनजोदड़ों तथा हड़प्पा नगरोंकी खुदाईसे प्राप्त वस्तुओंसे यह बात तो सर्व सम्मत ही है कि वैदिक आर्यगण लघु एशिया और मध्य एशिया के देशों में से होते हुए त्रेतायुगकी चाह लगभग ३००० ई० पूर्व मे इछावर्त और उत्तरपश्चिमके द्वार से पंजाब में आये थे । उस समय पहजेसे ही द्राविद लोग गान्धारसे विदेह तक; और पंचानसं दक्षिण के मयदेश तक अनेक जातियों में बटे हुए अनेक जनपदोंमें बसे हुए थे, और सभ्यता में काफी बढ़े खड़े थे। ये दुर्गं ग्राम, पुर और नगर बनाकर एक सुव्यवस्थित राष्ट्रका जीवन व्यतीत करते थे। ये वास्तुकला में बड़े प्रवीण थे। ये भूमि खोदकर बड़े सुन्दर कूप, तालाब, बायदो, भवन और प्रासाद बनाना जानते थे । इनके नगर और दुर्गं ईंट, पत्थर और चूने के बने हुए थे। इनके कितने ही दुर्ग लोहा, सोना डा० सुनीति कुमार चटर्जीका लेखा 'कृष्णा द्वपायन व्यास और कृष्ण वासुदेव ।'
२. (घ) " हि सर्पाः कृपा इव हि सर्पाणामायतनानि अस्ति वै मनुष्यायां च सर्पायां च विभ्रातृव्यम्" । ०४-१-२-३