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________________ ३३४ ] अनेकान्त [किरण ११ प्रसिद्ध है। वर्तक या प्रवर्तक यह उनकी उपाधि या पद यही कारण है कि वे शिष्यों-सामान्य साधुजनोंके लिए रहा है, जिसका अर्थ होता है-वर्तन, प्रवर्तन, या पाच- हिदायत देते हुए कहते हैं कि साधुको उस गुरुकुल में रण करानेवाला । मेरे इस कथनकी पुष्टि इसी मूलाचारके नहीं रहना चाहिए, जहाँ पर कि उक्त पांच प्राधार न हों। समाचाराधिकारसे भी होती है जिसमें साधुको कहाँ पर दूसरे उल्लेखसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है, जिसमें नहीं रहना चाहिए इस पातको बतलाते हुए मूलाचार- कि संघ के प्राधारभूत उक्त पांचोंके कृतिकर्म करनेका कार कहते है विधान किया गया है। तत्थ व कप्पह वासोजत्य इमे मत्थि पंच आधारा। समाचाराधिकारकी गाथा नं. ११६ के 'संघवहवमो पदका माइरिय-उवझाया पवत्त थेरा गणधरा य ॥१५५ मा. वसुनन्दिकृत अर्थ 'संघप्रवर्तकश्चर्यादिभिरुपकारक: देखनेसे और स्वयं प्राचारांग शास्त्रके रचयिता होनेसे अर्थात्-साधुको उस गुरुकुममे नहीं रहना चाहए, ' यह बात सहजमें ही हृदय पर अंकित होती है कि एलाजहां पर कि प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थावर और चार्य किसी बहुत बड़े साधु संघके प्रवर्तक पद पर पासीन गए.धर, ये पाँच प्राधार न हों। थे और इसी कारण पश्चाद्वर्ती प्राचार्योंने उन्हें इसी नाममा. बसुनन्दी 'पवत्त' पदकी व्याख्या करते हुए से स्मरण किया । वर्तक एजाचार्यका ही प्राकृतरूप लिखते हैं:-'संघं प्रवर्तयतीति प्रवतेकः' भर्थात् जो संघ. 'बहराइरिय' है। ऐसा ज्ञात होता है कि मूलाचारकी जो का उत्तम दिशा में प्रवर्तन करे, वह प्रवर्तक कहलाता है। मूलतियाँ प्रा. वसुनन्दीके सामने रही हैं उनके अन्त स्वयं मूलाचार-कार उपयुक्त पांचों माधारोंका अर्थ में 'बहराइरिय विरहय' जैसा पाठ रहा होगा और उसमें इससे भागेकी गाथामे इस प्रकार सूचित करते है: के अन्तिम पद 'माइरिय' का संस्कृतरूप प्राचार्य करके सिसाणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसोय संघवट्टयो। प्रारंभके 'चट्टकेर' को उन्होंने किसी प्राचार्य विशेषका नाम । समझकर और उसके संस्कृतरूप पर ध्यान न देकर अपनी प्रति-जो शिष्योंके अनग्रह में कुशल हो. टीकाके मादि बचतमें उसके रचयिताका 'वट्टकेराचार्य प्राचार्य करते हैं जो धर्मका उपदेश दे, वह उपाध्याय नाम से उल्लेख कर दिया। कहलाता है। जो संघका प्रवर्तक हो चर्या आदिके द्वारा वर्तक-एलाचार्य या कुन्दकुन्द उपकारक हो उसे प्रवर्तक कहते है, जो साधु-मर्यादाका उक्त विवेचनसे यह तो स्पष्ट हो गया कि मूलाचारके उपदेश दे, यह स्थविर है और जो सर्व प्रकारसे गयाको कर्ता प्रवर्तक एनाचार्य है। पर इस नामके भनेक प्राचार्य रक्षा करे उसे गणधर कहते हैं। हो गये हैं, प्रत मूलाचारके कर्त्ता कौनसे एलाचार्य है। मूलाचार कारने इससे भागेके षडावश्यक अधिकार में यह सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है । ऐतिहासिक सामायिक करनेके पूर्व किस-विसका कृतिका करना विद्वानोंने तीन एनाचार्योंकी खोज की है। प्रथम कुन्दकुन्द, चाहिए, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है : जो मूलसघके प्रवर्तक माने जाते हैं। दूसरे वे, जो धवला मारिय-उवझायाणं पवत्तय त्थेर-गणधरादीणं। टीकाकार वीरसेनाचार्यके गुरु थे और तीसरे 'ज्वालिनीमत' एदेसि किदियम्म कायन णिज्जरछाए ॥४४॥ नामक ग्रन्थ के प्राध प्रणेता । जैसा कि लेखके प्रारम्भमें अर्थात् कर्मोंकी निर्जराके लिए प्राचार्य, उपाध्याय, बताया गया है, धवला टीकामें मूलाचारके प्राचारांगके प्रवर्तक स्थविर और गणधरादिका कृतिकर्म करना चाहिए। रूपसे और तिलोयपरणतीमें मूलाचारके रूपसे उल्लेख मूलाचारके इन दोनों उद्धरणोंसे जहां प्रवर्तक' पद होने के कारण मूलाचारके कर्ता अन्तिम दोनों एलाचार्य की विशेषता प्रकट होती है, वहां उससे इस बात पर भी नहीं हो सकते है, अतः पारिशेषन्यायसे कुन्दकुन्द ही प्रकाश पड़ता है कि मूलाचार-रचयिताले समय तक अनेक एखाचार्यके रूपसे सिद्ध होते हैं। साधु-संघ विशाल परिमाण में विद्यमान थे और उनके मूलाचारकी कितनी ही प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों भीतर उक्त पाँचों पदोंके धारक मुनि-पुंगव भी होते थे। में भी प्रन्यकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य पाया जाता है।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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