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और दीसे युक्त थे। कृषि पशुपालन
व्या
दक्ष ।
पार और शिल्पकला इनके मुख्य व्यवसाय थे । ये जहाज चलाने की कला एक थे वे जाओं द्वारा समुद्री मार्गसे लघु एशिया तथा उत्तर पूर्वीय अफ्रीका के दूरवर्ती देशोंके साथ व्यापार करते थे१ |
अनेकान्त
इन्होंने अपने उच्च नैतिक जीवनले उक्त देशोंोगों को काफी प्रभावित किया था और उन्हें अपने बहुत धार्मिक प्राध्यान बतलाये थे। उनमें अपनी आध्यात्मिक संस्कृतिका प्रसार भी किया था। उक देशों जमने वाले सभी सुमेरी और बासुरी सभ्यताओंने जो सृष्टि-प्र और सृष्टि पूर्व व्यवस्था सम्बन्धी मृत्यु तमादपुरुष चारमा असुर-वा-प्रजापति- हिरययगर्भवाद. विसृष्टि इच्छा, तपनादिके आख्यान (Mythes ) प्रचलित हैं, वे इन दस्युलोगोंकी ही देन हैं। वे इनके मृत्यु व अज्ञानतम प्राच्छादित संसारसागरवाद, संसार-विच्छेदक चादिपुरुष जन्मवाद, शाहिवार, त्याग तपस्या ध्यान विखीनता द्वारा संसारका प्रलयवाद अन्य अध्यात्मिक आख्यानोंके ही आधिदैविक रूपान्तर हैं; मे आख्यान लघु एशियामेंसे चलकर आनेवाले आर्य अबके वैदिक साहित्य में तो काफी भरे हुए हैं; परन्तु मध्यसागरके निकटवर्ती देशोंमें पीछेसे बहुरी, ईसाई, इसलाम आदि जिसने भी धर्मोका विकास हुआ है, उन सभी अपने-अपने ग्रन्थों क क्यानोंका अतिरूपसे बखान किया है, चूँकि ये सभी ध्यान आध्यात्मिक है और आध्यात्मिक व्याख्याही सार्थक ठहरते है | इसलिये आध्यात्मिक परम्पराले विलग हो जाने के कारण जब इनका अर्थ अन्य उक देश वालों
आधिदैविक रीति करना चाहा तो ये सभी विचारकोंके लिये जटिल समस्या बन गये । और आज भी ये ईश्वर वादी विचारकोंके लिये एक गहन समस्या है।
वेदविद लोग सर्प चिन्हका टोटका ( Totem ) अधिक प्रयोग में जानेके कारण नाग, अहि, सर्प आदि नामोंसे थे। वाणिज्य व्यापारमै कुरा हो कारण ये पार्थं (वधिक) कहलाते थे । श्यामवर्ण होनेके
[रिख ११
कारण मे कृष्ण भी कहलाते थे। अपनी बौद्धिक प्रतिमा और उच्च आचार-विचारके कारय मे अपनेको दास व दस्यु (चमकदार) नामले पुकारते थे। प्रभारी व संबधी । होने तथा इसके उपासक होने के कारण मे मात्य भी कहलाते वृत्र थे, ये प्रत्येक विद्याओंके जानकार होनेसे द्राविद नामसे प्रसिद्ध थे, संस्कृत विद्याधर शब्द 'शावि' शब्दका ही । इसीसंकृविद्यार लिये पिले पौराणिक व साहित्य कथा, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थोंमें इन्हें विशेषतया बिन्ध्याचल प्रदेशी तथा दक्षिय अनार्य लोगोंका विद्याधर शब्द ही निर्देश किया गया है। ये बड़े बलिष्ठ, धर्मनिष्ठ, दयालु और अहिसाधर्मको माननेवाले थे। वे अपने इष्टदेवको पुत्र (अर्थात् सब ओरसे घेर कर रहने वाला अर्थात् सर्वज्ञ) ४ (सचादरी परमेष्ठी (परम सिद्धिके मालिक जिन (संसारके विजेता मृत्युन्जय ) शिव (भानन्दपूर्ण ) ईश्वर (महिमापूर्ण नामसे पुकारते थे। आम-शुद्धिके लिये महिला संयम रूप मागंडे अनुयायी, ये वे देशी (जटाधारी) (शिशन- देव ) ( नग्नसाधुओं) के उपासक पेट मे नदियों और पर्वतोंको इन योगियोंकी तपोभूमि होने के कारण तीर्थस्थान मानते थे। ये व्यग्रोध, अश्वस्थ, आदि वृत्तोंको योगियोंके ध्यान साधनासे सम्बन्धित होनेके कारण पूज्य वस्तु मानते थे।
(1) [अ] विशेष पर्यागके लिये देखें अनेकान्स वर्ष 11
किर २ में प्रकाशित लेखकका "मोहनजोदडो कजीन और आधुनिक जैन संस्कृति" शीर्षक लेख ।
द्राविड़ संस्कृतिकी प्राचीनता
शाविक लोगोंकी इस प्राध्यात्मिक संस्कृतिकी प्राचीनताके सम्बन्ध में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि आर्यजन के श्रागमन से पूर्व यह संस्कृति भारत में प्रचलित थी। यहांके विज्ञजन देव-उपासना सत्य-चिन्तन, और कविभावुकता ऊपर उठकर धारमयकी साधना हट चुके थे। वे सांसारिक अभ्युदयको नीरस और मिथ्या जान अध्यात्म
(२) ऋग्वेद ८ ८-११-१२
(३) रामायण ( वाल्मीकि) सुन्दरकांड सर्ग १२ । ब्राह्मी
संहिता १२०३८ पद्मपुराण स्वर्गख । (४) वृत्रोह वाऽइदं सर्वे वृत्वा शिश्यो यदिदमन्तरेण द्यावा
पृथिवी यदिदं सर्वं कृत्वा हिरवे तस्मादो नाम । - शतपथ मा० १. १.२.४
(२) इसके लिये देखें अनेकान्त वर्ष १२ किरण २ व ३ में लेखकके 'भारत योगियोंका देश है शीर्षक लेख