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किरण ११)
आर्य और द्रविड़के संस्कृति सम्मेलन उपक्रम
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अभ्युदय के लिये स्यागी, भिवाचारी पोर अरण्यवासी वैदिक आर्योंका आदि धर्मबन चुके थे, वे तपस्या द्वारा महन्, जिन, शिव, ईश्वर, पंजाबमे बसने वाले मार्यगण अपनी फारसी शाखाके परमेष्ठोब्य जीवनके उच्चतम भादशंकी सिद्धि पा स्वयं समान ही जो फारस (ईरान) में भावाद हो गई थी, सिद्धबन चुके थे। भरण्यों में इन सिद्धपुरुष के नेके.
माधिदैविक संस्कृतिके मानने वाले थे। वे मानव चेतनाकी स्थान जो निषद, निषीदि, निषधा, निषोदिका नामोसे उस शैशवदशासे अभी उपर न उठे थे, जब मनुष्य सम्बोधित होते थे. भारतीय जनके लिए शिक्षा दीक्षा, स्वाभाविक पसन्दके कारण रंगविरंगी चमत्कारिक चीजोंशोध-चिंतन, माराधना उपासनाके केन्द्र बने हुए थे। इन को देख पाश्चर्य-विभोर हो उठता है, जब वह बाहनिषदों परसे प्राप्त होनेके कारण ही भार्यजनने पोचेस तयोंके साथ दबकर उन्हें अपने खेल-कूद मामोद-प्रमोदका अध्यात्मविद्याको 'उपनिषद्' शब्दमे कहना शुरू किया साधन बनाता है उनके भोग उपभोगमें वहता हुमा । ये स्थान पाजकल जैन जागोम निशिया वो निशि
गायन और नृत्यके लिए प्रस्तुत होता है। जब वह अपनी नामांसे प्रसिद्ध है और इन स्थान की यात्रा करना एक
लघुता व बेवसी प्राकृति शक्तियों की व्यापकता और पुण्य कार्य समझा जाता है। उनकी इस जीवन-झांकीसे aareता
. यहाँ पर यही अनुमान किया जा सकता है कि ऐहिक उनमें देवता बुद्धि धारण करता है, उनके सामने नतमस्तक वैभव और दुनियावी भाग विलास वाले शैशव कालसे हो उनसे सहायतार्थ प्रार्थना करने पर उतारू होता है। उठ कर त्याग और सन्तोषके प्रौढ़ जीवन तक पहुँचते थे, हम दशामें सर्वव्यापक ऊंचा प्राकाश और उसमें रहने उन्हें क्या कुछ समय न लगा होगा। प्रवृत्ति मागस वाले सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण तथा नियमबद घूमने निवृत्तिकी भोर मांब खानेसे पहले इन खांगांने ऐहिक
बाबा तुचक अन्तरिष. लोक और उसमें बसने वाले वैभवके सृजन, प्रसार और विलासमें काफी समय बिताया मेघ, पर्जन्य, विद्य त प्रभंजा, वायु, तथा पृथ्वीलोक, और होगा। बहुत कुछ देवी-देवता अर्चन धर्म पुरुषार्थ अथवा उस पर टिके हुये समुद्र, पर्वत, चितिज, उषा भादि सभी मर्थ काम पुरुषार्थ अथवा वशीकरण यन्त्र-मन्त्रोंके करने
सुन्दर और चमत्कारिक तव जीवन में जिज्ञासा, भोज, पर भी जब उनका मनोरथकी प्राप्ति न हुई होगी. तब ही
स्कृति और विकास करने वाले होते है, इसीलिए हम ही तो वे इनको दृष्टिम मिथ्या और निस्मार जचे होंगे। देखने
में इस लम्बे जीवन प्रयोग पर ध्यान देनेसे यह अनुमान फारमी और हिन्दी पोरोपीय शाखाओंकी तरह पस होता है कि भारतीय संस्कृतिका प्रारम्भिक काल घेदिक (माकाश वरुण (प्राकाराका व्यापक देवता) मित्र प्रार्यजनके आगमनसे कमसे कम १.०० वर्ष पूर्व अर्थात् (भासमानी प्रकाश ) सूर्य, महत (अन्तरिक्षमें विचरने १०.. ईसा पूर्तका जरूर होगा । इस अनुमानकी पुष्टि वाला वायु) अग्नि, उषा, अधिन् (प्रति और सम्या भारतीय अनुश्रतिसे भी होती है कि सतयुगका धर्म तप समयकी प्रभा) भादि देवताओंके उपासक थे । था, और त्रेता युगमें यज्ञोंका विधान रहा, और द्वापरम
इस सम्बन्धमें यह बात याद रखने योग्य है कि यज्ञोंका हास होना शुरू हो गया। भारतीय ज्योतिष गण
शैशवकालमें मनुष्यकी मान्यता बाहरी और प्राधिदैविक नाके अनुसार सतयुगका परिमाण ४८००, प्रेताका १६..
क्यों न हो उसके साथ उसकी कामनाओं और वेदनामोंकी द्वापरका २४..और कलिका १२०० वर्ष है। यदि वैदिक
अनुभूतियांका घनिष्ट सम्बन्ध बना रहता है। और यह भार्यजन श्रेतायुगके मध्य में भारतमें पाये हुए माने जाय
स्वाभाविक भी है, क्योंकि जगत् और तत्सम्बन्धि बातोंऔर नेताका मध्यकाल ३... ईम्बी पूर्व माना जाय तो
को जानने के लिए मनुष्यके पास अपने अनुभूतिके सिवाय द्वाविद संस्कृतिका भारम्भिक काल उससे कई हजार वर्ष पूर्वका होना सिद्ध होता है।
(२) (A) S. Radha Krishnan-Indian
philosophy Vol. one-chapter first. (१)मनुस्मृति 1.1, महाभारत शान्तिपर्वअध्याय २१. (B) Prof. A Macdonell-Vedic My२१-११। मुण्डक उपनिषद-1-1-1
thology V), 2 and 3