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किरण]
हमारी जन तीथयात्राके संस्मरण
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एक मूर्ति विराजमान मिट्टीकी मूर्तियोंके बमानेका कारकल-यह नगर मदास प्रान्तके दक्षिण कर्नाटक रिवाज कबसे प्रचलितमा बह विचारणीय है। जिले में अवस्थित है। कहा जाता है कि यह मगर विममकी
कल्लनि वासी वीं शताब्दसे १.वीं शताब्दी तक जन-धनसे सम्पत्र मति विराजमान है। कहा जाता है कि पहले इस मंदिरके
९५ खूब समृदशाबी रहा है। इसकी समृद्धिमें नियोने भूगर्भ में ही सिद्धान्तमम्बरले जाते थे।
अपना पूरा योगदान दिया था । इक शताब्दियामें कार
कल भेररस नामक पायब्य राजर्षशके जैन राजामोंसे देरमसेटिवस्ति-इस मंदिरको देरम' नामक सेठने
शासित रहा है। प्रारम्भमें यह राजवंश अपनी स्वतन्त्र बनवाया था। मूलनायक मूर्ति तीनफुट ऊंची है इस मूर्तिके
सत्ता रखता था; परन्तु यह स्वतन्त्रता अधिक समय पक मीचे भागमें चौबीस बोधकर मूर्तियाँ है। और उपरके
कायम न रह सको । कारकबके इस पारब्यवंशको विजयखंडमें भगवान मल्लिनाथकी पदमासन मूर्ति विराजमान है।
नगर और हापसल बंश तथा अन्य भनेक बखशाली शासक चोलसेद्विवस्ति-इस मन्दिरको उक्त सेठने बनवाया
राजामों की प्रधानता अथवा परतंत्रतामें रहना पड़ा। उस था। इस मंदिरमें सुमति पमप्रभ और सुपारवनाथकी
समय वहां जनियोंका बहु संख्यामें निवास या और वहांके चार चार फुट ऊँची मूर्तियों विराजमान हैं। इस मंदिरके व्यापार मादिमें भी उनका विशेष हाथ था। मागे भागमें दायें बायें वाले कोठोंमें चौवीस तीर्थंकर कारकनमें सन् १२६ से सन् १९८६ तक पारब्ध मूतियाँ विराजमान हैं। इसीसे इसे 'तीर्थकरवस्ति' कहा चक्रवती, रामनाथ, वीर पायख्य और इम्मति भैरवराय जाता है।
मादि जैन राजामोंने उस पर शासन किया है। मेररस महादेवसेद्विवस्ति-इस वस्तिके बनवाने वाले उक्त राजा वीर पाययन शक संवत् १३१४ (वि०सं० 100%) सेठ हैं। इसमें मूलनायक फुट ऊँची मूर्ति विराजमान है। में फागुन शुक्ला द्वादशीके दिन वहांके तत्कालीन प्रसिद्ध
बंकिवरित-इस किसीकम अधिकारीने बनवाया राजगुरुभहारक बलितकीर्ति जो मूलसंध कुन्दसन्दाम्बय था। इस अनन्तनाथ भगवानकी मूर्ति विराजमान है। देशीयगय पुस्तकगच्छके विद्वान देवकीरिक शिष्य थे और करवस्ति-इस मन्दिरमे कालेपाषाणकी ५ फुट ऊंची
पनसोगेके निवासी थे, उनके द्वारा स्थिरबग्नमें बाहुबलीकी मल्लिनाथ भगवान की मूति विराजमान है।
उस विशाल मूर्तिकी, जो फुट ५ इंच ऊंची थो
प्रतिष्ठा कराई गई थी। मूर्तिके इस प्रतिष्ठा महोत्सबमें विजय पडुवस्ति-इसमें मूलनायक प्रतिमा अनंतनाथ की है
मगरके तत्कालीन शासक राजादेवराय (द्वितीय) भी शामिल जो पभासन चार फुट ऊँची है। कहा जाता है कि पहले
हुए थे। कविचन्द्रमने अपने 'गोम्मटेश्वर परिव' नामक शास्त्रभण्डार इसी मन्दिरके भूप्रहमें विराजमान था, जो
प्रथमें बाहुबलीकी इस मूर्तिके निर्माण और प्रतिष्ठादि दीमकादिने भषणकर लुप्त प्रायः कर दिया था, उसमिसे
का विस्तृत परिचय दिया है जिसमें बताया गया है अवशिष्ट योकी सुचादिका कार्य पारा निवासी बाबू ।
कि उक्त मूर्तिके निर्माणका यह कार्य युवराजकी देखरेख में देवकुमारजीने अपने दम्यसं कराया था। बादमें वे सब --- अन्य ममें विराजमान करा दिये गए है।
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शास्त्रोंके अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भहारकहनके मठवस्ति-इस मन्दिरमें काले पाषाणकी पार्श्वनाथ
बाद कारकलकी इस महारकीय गही पर जो भी महारक की सुन्दर मूर्ति है।
प्रतिष्ठिव हाता था, वह बहान बलितकीवि नामस ही यहाँ सुपारी नारियल कालीमिर्च और काजूके वृक्षोंके उक्लेखित किया जाता है। कभ. बखितकातिके अनेक अनेक बाग हैं। कालीमिर्चका भाव उस समय ३) रुपया शिष्य थे। कल्यायकीर्ति, देवबन्द्र माद इनमें कल्याण सेर था। धान भी यहाँ अच्छा पैदा होता है। यहाँ के कीतिने, जिनयज्ञफलोदय (११५.) ज्ञानचनाभ्युदय, चावलभी बहुत अच्छे और स्वादिष्ट होते हैं। यहाँ से कामनक्ये, मनु, जिनम्नुति, वस्वमेदाष्टक, सिदाशि, भोजनकर १५बजेके करीब चलकर हम लोग कारकल योधर चरित (श. १३०५) और शशिकुमारचरितका
(२०१३)रचनाकाल पाया जाता।